शव संवाद-20

धीरे-धीरे पुतले और इनसान के बीच अंतर खत्म होते-होते, आज स्थिति यहां तक पहुंच गई कि मुफ्त राशन की लाइन में, चुनावी पार्टियों के टिकटार्थियों में और देशभक्ति के नाकों पर भी पुतले पहुंच गए। अब हर जगह एक-दूसरे पर शक यह है कि कहीं पुतलों के बीच कोई बुद्धिजीवी इनसान तो नहीं। उधर लोगों के बीच पुतले बनाने का हुनर परवान चढ़ रहा है, ताकि जिन्हें घोषित पुतला बना दिया जाए, इल्जाम उन्हीं के ऊपर जमाने के आमादा हो जाएं। एक गलती से रावण आज तक पुतला बना घूम रहा है, लेकिन आज के इनसान को यह कबूल नहीं कि उसे गलती का पुतला कहा जाए। उधर पुतलों को यह कबूल नहीं कि उन्हें इनसान से जोड़ा जाए। पहली बार पुतलों ने महसूस किया कि उनकी आबादी भी बढ़ रही है और वे भी परिवारवाद के शिकार हैं। एक पुतले वे जो बुत बनकर तराशे जाते और दूसरे वे जो रस्सियों से बांध कर पीटे जाते हैं। जिनके बुत बने वह अपनी ही ऊंचाई से लड़ रहे और जो जलाए गए वे जलने वालों की आग को नहीं समझ पाए। बुद्धिजीवी को यह कभी समझ नहीं आया कि इनसान का पुतला हो जाना क्यों दुनिया को जल्दी से समझ आ जाता है। सदियों पहले रावण को पुतला बनाने का तर्क समझ आया, जो आज तक जल रहा है, वरना गुस्ताखियां तो आजकल इससे भी कहीं अधिक हो रहीं। हर जला हुआ व्यक्ति पुतला नहीं होता, फिर भी पुतले के जलने से इनसान होने का पता चलता है। मरने के बाद कोई बुत बन गया, लेकिन अधिकांश पुतले बनकर यूं ही जल गए। बुद्धिजीवी पुतला बनकर जल जाना चाहता था, लेकिन उसे भय यह था कि कोई उसे खामख्वाह बुत बनाकर सदियों के लिए खड़ा न कर दे। उसके मुताबिक, ‘बुत बनकर सदियां भी लांघ गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन पुतला बना दिए गए तो आग से गुजरना समझ जाएंगे। बुद्धिजीवी ने इसी उधेड़बुन में कई बार रावण को पुतले के रूप में जलते हुए देखा।

हर बार जलाने वाले नेता को शराफत के बुत में बदलते देखा। इस बार भी जलाने वाला एक नेता ही था, लेकिन दशहरे के तीन पुतलों में रावण का जरा ढीठ निकला। अधजला वहीं पड़ा मिला तो बुद्धिजीवी ने किसी तरह पुतले के अवशेषों का शव उठाया और शमशानघाट की तरफ चल पड़ा। रास्ते में पुतला कराहने लगा। सदियों के जख्म दिखाने लगा। उसे यह दुख नहीं था कि रावण पुतला क्यों बना, बल्कि यह सोच-सोच कर शर्मिंदा है कि उसे ढंग से जलाया भी नहीं जाता। उससे तो कहीं बेहतर बहुएं जलाई जाती हैं, जो पुतला नहीं होतीं। हर साल सरकारी दफ्तरों में आने वाली ढेरों शिकायतें, बदलती सरकारों की फाइलें और योजनाओं के नाम तक रावण के पुतले से कहीं बेहतर ढंग से जलाए जाते हैं। बुद्धिजीवी हैरान था कि पुतले का भी आत्मसम्मान है, इसलिए वह जलने-जलने में अंतर निकाल रहा है। रावण के पुतले से देश की बची हुई आवाज बता रही थी, ‘मैं हैरान हूं कि भारत में अब तक जो बुत बनकर खड़े थे, उन्हें भी राजनीति पुतलों की तरह घसीट रही है। गोडसे के समर्थक ऐसे बुतों से निकले पुतलों पर अगर गोली चला रहे हैं, तो रावण का क्या, वह तो जल कर भी प्रासंगिक बन रहा, वरना देश में सबसे अधिक अनादर तो बुतों का ही हो रहा है।’ बुद्धिजीवी पहली बार इस प्रयास में था कि बचे हुए रावण के पुतले को शमशान की आग के हवाले कर दे। वहां एक लावारिस लाश को कुछ लोगों द्वारा जैसे तैसे जलाने की कोशिश करते देख, उसने पुतले से बची लकडिय़ों को आग के सुपुर्द कर दिया। चिता धू-धू जल रही थी, लेकिन कहीं दूर से आवाज आ रही थी, ‘इस बार रावण के पुतले की ऊंचाई बढ़ाने का रिकार्ड बना है और इसके लिए जनता अपने विधायक की विशेष रूप से आभारी है।’

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक