जिंदा हैं क्षेत्रीय दल

मिजोरम में पांच साल पुराने क्षेत्रीय दल ‘जोराम पीपुल्स मूवमेंट’ (जेडपीएम) को जनादेश देकर 35 साल पुरानी राजनीतिक जुगलबंदी को तोड़ा गया है। यह एक नए क्षेत्रीय दल की नाटकीय जीत है। जेडपीएम के पक्ष में ऐसी लहर थी, जिसमें मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी पराजित हो गए। मिजो नेशनल फ्रंट जैसे ताकतवर दल का लगभग सूपड़ा साफ हो गया। भाजपा और कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय दलों के हिस्से क्रमश: 2 और 1 सीट ही आई। अब मुख्यमंत्री पद पर एक नया चेहरा होगा-लालदुहोमा। अभी तक सत्ता की बंदरबांट जोरमथांगा और ललथनहवला के बीच जारी रही थी। उनके जरिए भाजपा और कांग्रेस का वर्चस्व भी बना रहता था, लेकिन ताजा चुनाव में एक पूर्व आईपीएस अधिकारी एवं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सुरक्षा प्रभारी रहे लालदुहोमा की नवजात पार्टी को स्पष्ट जनादेश मिला है, तो माना जा सकता है कि क्षेत्रीय दल अब भी जिंदा हैं। लालदुहोमा कांग्रेस के सांसद रहे हैं, लिहाजा उनका कुछ राजनीतिक झुकाव कांग्रेस की तरफ स्वाभाविक है, लेकिन यह जनादेश उन्होंने एमएनएफ, भाजपा और कांग्रेस सरीखी ताकतों से लडक़र हासिल किया है। दरअसल राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह भाजपा और कांग्रेस को जनादेश मिले हैं, उनके मद्देनजर व्याख्या की जा रही है कि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में है, क्योंकि जनादेश राष्ट्रीय दलों के पक्ष में दिए जा रहे हैं। मिजोरम देश के हाशिए पर स्थित ऐसा छोटा-सा राज्य है, जिसका पड़ोसी मणिपुर है। वहां के जातीय, विभाजक, हिंसक और हत्यारे टकरावों का प्रभाव मिजोरम में भी है। हजारों कुकी लोग विस्थापित होकर मिजोरम में आए हैं। म्यांमार के घुसपैठिए यहां भी आते हैं। बेशक पुराना उग्रवाद लगभग शांत है, लेकिन यह एक आत्मनिर्भर राज्य नहीं है। मिजोरम को नई दिल्ली में भाजपा या कांग्रेस की सत्ताओं का सहारा हर हाल में चाहिए।

उसके बावजूद वहां की जनता ने एक नवजात दल को समर्थन दिया है, तो यह भी लोकतंत्र की खूबसूरती है। बेशक कुछ ही राज्यों में क्षेत्रीय दल प्रासंगिक बचे हैं, अलबत्ता दिल्ली में उनका प्रभाव धुंधला रहा है। 1989 से 2014 के बीच क्षेत्रीय दलों का जलवा था, क्योंकि किसी भी राष्ट्रीय पार्टी को बहुमत नहीं मिल रहा था। क्षेत्रीय दल देश की सत्ता के सूत्रधार बन गए थे। चूंकि 2014 में केंद्र में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, उसके साथ ही क्षेत्रीय दलों के अंत की शुरुआत हो गई। हालांकि कुछ क्षेत्रीय दल ‘प्रतीक-रूप’ में ही मोदी सरकार में शामिल हैं। भाजपा ने क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर धकेलना शुरू किया है। भाजपा उप्र और महाराष्ट्र में भी वर्चस्ववादी ताकत के रूप में स्थापित हो चुकी है, नतीजतन क्षेत्रीय दलों में उथल-पुथल मची है। 2014 के बाद से राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच दो तरह की राजनीतिक साझेदारियां चल रही हैं। आंध्रप्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और ओडिशा में बीजद आज भी अपने-अपने राज्य में सत्तारूढ़ ताकत हैं। भाजपा के साथ उनकी खास किस्म की साझेदारी है। वे संसद में, खासकर राज्यसभा में, भाजपा को समर्थन देते हैं। बदले में भाजपा उन्हें परेशान नहीं करती। तमिलनाडु और केरल में क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के गठबंधन में चुनाव लड़ते हैं, लेकिन तमिलनाडु में क्षेत्रीय दल द्रमुक का गठबंधन में वर्चस्व है। बिहार और महाराष्ट्र में संतुलन की स्थितियां हैं। चुनावों में राष्ट्रीय दलों को क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना ही पड़ता है।