आनंद का स्रोत

बाबा हरदेव

गतांक से आगे..
जब आनंद स्वरूप है तो दु:ख स्वरूप क्यों हुआ? कारण दिशा ठीक नहीं। यदि दिशा ठीक हो जाए तो दशा ठीक होने से कोई नहीं रोक सकता।
सद्गुरु मनुष्य को उचित दिशा देता है तो मनुष्य के जीवन में परिवर्तन आना स्वाभाविक हो जाता है। घर में रोशनी हो जाए तो मनुष्य घर में आराम से उठता, बैठता है, चलता है या सोता है और ये सब कार्य वह रोशनी में होने के कारण आराम से कर पाता है। मनुष्य को सत्य मिल जाता है तो मनुष्य उठता-बैठता है तो सत्य में चलता है तो वो सत्य में। सत्य से बाहर कभी नहीं जा सकता। जिसे सत्य यानी निरंकार की याद है वो आनंद में है।

सद्गुरु ने जब से जगा दिया है, आंखें खुल गई। जब जाग गया तो ब्रह्म मुहूर्त अर्थात प्रभात का समय हो गया। अब उठना, बैठना, चलना, सब इसी के अंदर है। अब कोई चिंता नहीं है कि कब उठना है, कब सोना है। अब हमेशा यह याद रहता कि मेरा मालिक मेरे पास। जैसे बच्चा पिता की गोद में है, खेल रहा है, नाच रहा है, अब कब क्या बच्चे को देना है इसकी चिंता पिता को होगी। जो पिता करेगा या बच्चे को देगा, वह बच्चे के भले के लिए होगा। इसलिए हम प्रभु के बच्चे बन कर रहें। इसी से प्रेम करें। प्रभु तो दयालु है। सद्गुरु विश्व के सूर्य हैं।
उसके प्राण हैं जगत के प्राणियों की दु:खदायी, प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिणत करने के लिए प्रयत्नवत रहते हैं। उनकी वाणी से अमर ज्ञानामृत बरसता है। नेत्रों से प्रेम, शीतलता सुखद ज्योति निकलती है।

सद्गुरु ने हमें सदैव आनंद से रहने के लिए प्रेरित भी किया है। समय-समय पर सावधान भी किया है कि कलियुग का प्रभाव तेज है। संसार के विकार उग्र हैं इनसे बचने के लिए निरंतर सेवा सुमरिन और सत्संग से जुड़े रहो। निंदा, वैर, विरोध, द्वेष और अहंकार से दूर रहो। ये आनंद में बाधक बनते हैं। निरंकार का ज्ञान लेकर भी कोई अभिमान या किसी की निंदा करता है तो वह ऐसे है जैसे हाथी नहाता है तो अपने ऊपर पानी फेंकता रहता है और जब पानी से बाहत आता है तो अपनी सूंड से अपने ऊपर मिट्टी डाल लेता है। उसे नहाने का कोई लाभ नहीं होता। वैसे ही सेवा, सुमरिन, सत्संग करते हुए यदि अहंकार और निंदा की तो उससे कोई लाभ मिलने वाला नहीं। अभिमान, क्रोध से भक्ति के फल को निष्फल कर लेते हैं।

सहजता, सरलता, विनम्रता और शांत स्वभाव में रहना आनंद के लक्षण हैं। जो-जो कर्म आनंद में बाधक बनता है सद्गुरु उन्हीं से छुटकारा दिलाते हैं। जैसे कोल्हू का बैल दिन-रात चलता है और सोचता है कभी तो मंजिल मिलेगी परंतु नहीं मिलती और वह वहीं का वहीं रह जाता है। क्योंकि आंखों पर पट्टी बंधी रहती है। टांगे भी थक जाती हैं परंतु आंखों से देख नहीं पाता कि मैं कहां जा रहा हूं। इसी प्रकार जो मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार मन के वश में होकर अपनी जीवन यात्रा तय कर रहे हैं, वे आनंद कदाचित प्राप्त नहीं कर सकते। इसके विपरीत जो मनुष्य संतो, महात्माओं की संगति को ग्रहण करते हैं, उन्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उन्हें सच्चा व शाश्वत आनंद संतों, महापुरुषों से ही प्राप्त हो सकता है। – क्रमश: