दफ्तर जाने के लिए…

दफ्तर जाने के लिए मुझे बहुत सी तैयारियां करनी पड़ती हैं। आखिर दफ्तर जो जा रहा हूं। दफ्तर जाने का मतलब यह तो है नहीं कि साबुन से नहाओ भी मत या रोजाना शेव भी मत बनाओ। दफ्तर में मेरे कई साथी हैं। वे इसे वेस्टेज मानते हैं। उनका तर्क यह है कि दफ्तर कोई निजी कार्य या सगे सम्बन्धी का काम तो है नहीं, जो रोज एक रुपए का ब्लेड खराब करो, साबुन खराब करो, चेहरे को चमकाने के लिए क्रीम लगाओ, बाल काले करो अथवा मूंछों की करीने से कटाई-छंटाई करो। जबकि मेरा मानना है कि दफ्तर से वेतन मिलता है, घर चलता है और वहां महिलाएं काम करती हैं, इसलिए थोड़ा शऊर से ही जाना चाहिए। कपड़े इस्त्री करे हुए पहनता हूं, यहां तक कि कपड़ों की फैशन का भी मैं पूरा ख्याल रखता हूं। मेरे साथी कहते हैं-‘भाई शर्मा, तुम्हें कोई एक्स्ट्रा इन्क्रीमैंट मिलेगा क्या, जो इतने सज-धज कर आते हो। कभी गणतंत्र दिवस या स्वाधीनता दिवस पर भी अभी तक तो सम्मानित नहीं किए गए। क्यों बेकार में धन का अपव्यय और समय जाया करते हो। इससे बढिय़ा तो कोई पार्ट टाइम जॉब करते तो समय का सदुपयोग हो।’ मैं कहता हूं-‘यारो, क्या मुंह उठाकर सीधे बिस्तर से निकल कर कुर्सी पर आ बैठते हो। कभी मिसेज मलकानी के बारे में भी सोचा है, जो आप लोगों से बात करना तो दूर, पल भर को नजर भरकर भी आप लोगों को देखती तक नहीं। एक मैं हूं जिससे वह घण्टों हंस-हंसकर बतियाती हैं।’ ‘ओह तो शर्मा यह सब मिसेज मलकानी के लिए कर रहे हो। भाभी जी को पता चल गया न, तो वे तुम्हारी यह सारी सजावट को तेल लेने भेज देंगी।

घर में माथाफोड़ी करते हो और दफ्तर में मिसेज मलकानी को अपनी बत्तीसी दिखाते हो। हम मलेच्छों को देखो जो पांच पैसे अपने ऊपर इस दफ्तर के लिए खर्च नहीं करते और शाम को रिश्वत के तीन सौ रुपए और मार ले जाते हैं। मिसेज मलकानी के हंसकर बोल लेने से तो गृहस्थी की गाड़ी आराम से चलती नहीं। पैसा हो तो भैया हर समस्या का समाधान है। तुम हर छह महीने में पी.पी.एफ. से लोन लेकर अपना घर खर्च चलाते हो और बचत के नाम पर तुम्हारे पास बचती होगी कोई एक फूटी कौड़ी।’ एक साथी बोला। मैंने कहा-‘ईमान, धर्म और सिद्धांत भी तो जीवन में कोई मायने रखते हैं। साफ-सुथरे ढंग और सलीके से दफ्तर आना मैं गलत नहीं मानता। किसी का काम न करना और करना तो रिश्वत खाकर, यह मेरी समझ से परे है।’ दूसरा साथी बोला-‘तुम्हें तो पता है हम अपने बुरे आचरण के बावजूद दो-दो बार सम्मानित हो चुके हैं। उफ ! तुम्हारी यह ईमानदारी कहीं तुम्हारी जान ही न ले ले। पहले तो अपने पर शऊर से आने का जो इन्वेस्टमैंट कर रहे हो, उसे बंद करो ताकि रिश्वत न सही, हजार-दो हजार की यह बदखर्ची तो बचे। रही बात मलकानी की तो भैया उसे कैंटीन में डोसा तुम्हीं खिलाते हो, वह तो कभी पेमेंट नहीं करती। इसलिए दफ्तर जाने के बारे में घर में ही सोचना शुरू कर दोगे तो फायदे का सौदा है। उम्रदराज हो गए, चेहरा सारी असलियत बता रहा है तो क्यों यथार्थ से कतराते हो?’ ‘इसका मतलब दफ्तर जाने के लिए मैं दाढ़ी से भरा चेहरा, रूखे बाल और टाटम्बरी कोट पहनकर आऊं। पांवों में हवाई चप्पल और छकड़ा साइकिल लेकर मैं दफ्तर जाऊं। पैट्रोल महंगा हो गया तो इसका मतलब स्कूटर को घर छोड़ दूं। जूतों पर पॉलिश भी नहीं करूं।’

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक