मौत की सुरंगें

उत्तराखंड की उत्तरकाशी सुरंग के निर्माण से जुड़ी अनियमितताओं और अहम शर्तों, प्रावधानों की अनदेखी पर सवाल करना उतना ही उचित है, जितना फंसे 41 मजदूरों की जिंदगियां बचाना जरूरी था। चूंकि सर्वोच्च अदालत उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सुरंग बनाने और मार्गों के विस्तार के खिलाफ नहीं है, लेकिन उसके फैसले आते रहे हैं कि निर्माण-कार्य, मानकों की तुलना में, घटिया स्तर के हैं, लिहाजा पहाड़ और मानवीय जीवन लगातार खतरे में बने रहे हैं। सर्वोच्च अदालत ने फैसलों के अलावा, विशेषज्ञ समितियां भी बनाईं, लेकिन सभी के निष्कर्ष कमोबेश यही रहे हैं। अलबत्ता वे पहाड़ में निर्माण और खुदाई के खिलाफ नहीं थीं। उत्तराखंड में औसतन 6 करोड़ पर्यटक सालाना जाते हैं, जिनसे करीब 15,000 करोड़ रुपए का राजस्व मिलता है। उनमें काफी पर्यटक चारधाम की यात्रा भी करते हैं, लिहाजा वे सुरंगों को पार करके ही केदारनाथ, बद्रीनाथ तक जा सकते हैं। क्या इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जिंदगी को जोखिम में धकेला जा सकता है? विवादित सुरंग के संदर्भ में सबसे अहम सवाल ‘आपातकालीन निकास मार्ग’ का है। विपक्ष ने भी ये सवाल उठाए हैं। वे गलत नहीं हैं। फंसे हुए मजदूर बाहर निकाले जा चुके हैं। ‘चूहा खनिकों’ को पुरस्कार के तौर पर 50-50 हजार रुपए देने की घोषणा की जा चुकी है। विपक्ष की राजनीति को एक तरफ रख भी दें, तो सुरंग की योजना से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे 3 निकास-मार्ग बनाए जाने थे, लेकिन कंपनी ने आज तक एक भी मार्ग और द्वार नहीं बनाया है। विशेषज्ञों ने भी निरीक्षण में अनदेखी बरती है, लिहाजा उनकी जिम्मेदारी भी तय की जाए। यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि सुरंग परियोजना की डीपीआर और निर्माण-कार्य में गहरे अंतर हैं।

फिलहाल निर्माण कंपनियां और केंद्रीय सडक़ परिवहन मंत्रालय आदि खामोश हैं। यदि सरकारी वेबसाइट पर निर्माण-योजना को पढ़ें, तो स्पष्ट होगा कि यह तय किया गया था कि सुरंग, बाहर निकलने का रास्ता और अप्रोच रोड 8 जुलाई, 2022 तक बन जाएंगे। इस परियोजना पर काम जुलाई, 2018 में शुरू किया गया था, लेकिन अभी तक करीब 56 फीसदी काम ही हो पाया है। उस पर मजदूरों के फंसने का हादसा हो गया। कुछ मजदूरों ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ संवाद के दौरान यह कहा है कि अब वे उस सुरंग में काम नहीं करेंगे। यदि वाकई ऐसा होता है, तो यह परियोजना लटक कर रह सकती है, क्योंकि मजदूरों की मनोस्थिति जंगल में आग की तरह फैलती है। बहरहाल अगली डेडलाइन मई, 2024 तय की गई है, जब देश में लोकसभा चुनाव होंगे। हकीकत यह है कि सुरंग में बचाव का कोई भी रास्ता आज तक नहीं बनाया गया है। कंपनी की अपनी दलील है कि इसकी जरूरत नहीं है, क्योंकि दोनों लेन के बीच दीवार है। उसमें ‘आपातकालीन निकास द्वार’ का प्रावधान है। एक से दूसरी तरफ आया-जाया जा सकता है, लेकिन यह भी हकीकत सामने आई है कि सुरंग में कहीं भी निकास-द्वार अभी तक नहीं बनाया गया है। सुरंग के खोदे गए हिस्से में भी ‘सुरक्षा-पाइप’ नहीं डाले गए हैं।

इस परियोजना से जुड़े प्रबंधकों की सफाई है कि कमजोर स्थानों पर ‘सुरक्षा-पाइप’ का इस्तेमाल करने की योजना थी, लेकिन किसी को भी एहसास नहीं था कि ऐसा हादसा होगा! खतरों और हादसों के भी एहसास होते हैं क्या? पर्यावरण संबंधी सरोकार सर्वोच्च अदालत ने भी जताए थे। आज भी ये चिंताएं अपनी जगह मौजूद हैं। निर्माण से जुड़ी 10 कंपनियों में से जिस ‘नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड’ को 853. 79 करोड़ रुपए का उप-ठेका दिया गया, उसके दामन पर हादसों और मौतों के दाग पहले से ही हैं। फिर भी यह ठेका दिया गया, लिहाजा यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है। हादसे की जांच समिति का नेतृत्व निदेशक, भूस्खलन शमन और प्रबंधन केंद्र, उत्तराखंड कर रहे हैं। समिति में किसी भी भू-विज्ञानी को नहीं रखा गया है। सिर्फ 6 इंजीनियर हैं और श्रमिक संघ या स्वतंत्र विशेषज्ञ भी नहीं हैं। जांच समिति भी सवालों में है। ‘चूहा-खनिकों’ के मेहनताने का मुद्दा भी उठा है। इससे जुड़े कानून कागजों पर तो हैं, लेकिन कोई भी नियामक या आयोग नहीं है।