पसंद-नापसंद के बंधन

सद्गुरु जग्गी वासुदेव
आपने अपने व्यक्तित्व के रूप में जो झूठ रच रखा है, उसका आधार आपकी पसंद और नापसंद है। अगर आप उनसे चिपकना बंद कर दें, तो आपका व्यक्तित्व गायब हो जाएगा,आप लचीले और शानदार बन जाएंगे। अगर आप अपने व्यक्तित्व को थामे रहना चाहते हैं तो आप आध्यात्मिक नहीं
हो सकते…
आध्यात्मिक प्रक्रिया के बारे में बहुत ज्यादा लिखा, कहा और किया जा चुका है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो आपको अपने जीवन में बाहर से लानी है। यह ऐसी चीज है जो आप हैं। आप सिर्फ उसी की खोजबीन कर रहे हैं जो मौजूद है। यह कह चुकने के बाद, वह क्या है जो आपको अपने प्राणी की प्रकृति की खोजबीन करने और जानने नहीं देता है? यह पूरा इस पर निर्भर करता है कि आप अपने जीवन के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक पहलू के साथ और साथ ही अपने कर्म संग्रह के साथ कितना उलझे हुए हैं। आपका शारीरिक ढांचा और आपका मनोवैज्ञानिक ढांचा इस पर निर्भर करता है कि आपका कर्म संग्रह किस किस्म का है। आप उसमें कितनी गहराई से घिरे हुए हैं यह इस पर निर्भर करता है कि आपने उसके साथ कितनी गहरी पहचान बनाई हुई है। किसी चीज के साथ खुद को जोडऩे की प्रक्रिया आपके जीवन और सामाजिक सिस्टम में बनी हुई है। दुनिया में हर जगह, कई अलग-अलग तरीकों से।

उदाहरण के लिए, जब आप दो साल के थे, तो हो सकता है कि आप बहुत आकर्षक न हों, लेकिन अगर आपके माता-पिता ने यह न माना होता कि आप बहुत प्यारे हैं, तो उन्होंने आपके डायपर नहीं बदले होते, उन्होंने चीखती-चिल्लाती रातें बिना सोए नहीं गुजारी होती। सामाजिक प्रणालियां आपको तमाम चीजों के बारे में सख्त पसंद और नापसंद बनाने में प्रशिक्षित करती हैं। जब आपको लगता है कि आप किसी के प्रेम में हैं, तो आप उनके अच्छे गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। जब आप किसी से घृणा करते हैं, तो आप उनके सारे दुर्गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं या उनकी बुराइयां खोज लेते हैं। एक व्यक्ति के रूप में आप जो हैं, एक प्राणी के रूप में नहीं, वह आप अपनी पसंद और नापसंद के कारण हैं।

यह आपकी पसंद और नापसंद हैं जो आपके व्यक्तित्व को तय करती है और एक व्यक्ति के रूप में आपको अलग बनाती है। आज से शुरुआत करके, आप बस अपनी एक पसंद और एक नापसंद को चुन लीजिए और एक महीने के समय में, सचेतन होकर उन्हें दूर कर दीजिए। हर महीने इस प्रक्रिया को दोहराइए। आपने अपने व्यक्तित्व के रूप में जो झूठ रच रखा है, उसका आधार आपकी पसंद और नापसंद है। अगर आप उनसे चिपकना बंद कर दें, तो आपका व्यक्तित्व गायब हो जाएगा, आप लचीले और शानदार बन जाएंगे। अगर आप अपने व्यक्तित्व को थामे रहना चाहते हैं तो आप आध्यात्मिक नहीं हो सकते। आध्यात्मिक होने का मतलब है कि कोई ‘आप’ और ‘मैं’ नहीं है, सिर्फ जीवन है। हर चीज में जीवन धडक़ रहा है। आपके अंदर जीवन की मूल प्रवृत्ति मौजूद है। भारत में एक परंपरा है कि अगर आप तीर्थयात्रा पर जाते हैं, तो आपको अपनी पसंद की एक चीज को छोडऩा होता है। अब मैं आपसे किसी चीज को छोडऩे को भी नहीं कह रहा हूं।