शव संवाद-25

देश अपनी ही मिमिक्री से डरने लगा है। आवारा गाय कूड़ेदान से दाना चुन रही थी, तो देश को लगा वह उसकी भूख की मिमिक्री कर रही है। देश आगे बढ़ा तो देखा विपक्ष की रैली बोल रही थी, उससे ऐसी मिमिक्री देखी नहीं गई, लिहाजा टीवी की मिमिक्री देख कर शांत हो गया। देश को लगता है कि भारतीय परंपराओं से हटकर केवल मिमिक्री कलाकार ही सोच सकता है। खौफ इतना कि देश अब यू-ट्यूब पर रिटायर पत्रकारों और चौराहे पर बुद्धिजीवी जैसे लोगों के बीच संवाद को सुनते ही डरने लगता है। देश में शांति के लिए मिमिक्री को भगाना जरूरी हो चुका था, इसलिए देश ने ठान लिया कि मिमिक्री के हर शब्द और मौन की हर अदा को नकली बता दिया जाए। हद यह कि मौन भी मिमिक्री करने लगा। खामोश वादियों में देश डरने लगा। इसलिए देश नागरिकों को बोलना सिखा रहा है, नारे लगवा रहा है। मिमिक्री से बचने के लिए नारे बदल गए। लोग भयभीत हैं कि कहीं भूख के नारे, अपनी-अपनी कंगाली के इशारे और बेरोजगारी के बारे कहते हुए मिमिक्री कांड में न फंस जाएं। यह देश की मर्जी है कि कब किस बात पर नाखुश होकर कांड का दोषी मान ले। दरअसल सरकारें भी अपने सामने होते प्रकरणों और कांडों की मिमिक्री ही तो करती हैं, लेकिन देश अपनी सरकारों का कायल है। वह देशभक्ति और धार्मिक नारों का कायल है, लेकिन जब दूर से देखता या सुनता है तो मिमिक्री मान लेता है। जनता की मिमिक्री भले ही सरकारें कर लें, मगर सरकार की मिमिक्री जनता नहीं कर सकती। अत: मिमिक्री पर प्रतिबंध लगा कर देश न्यायप्रिय होना चाहता है। लोग देश को ही शक्तिशाली मानें, इसलिए नागरिक को यह हक नहीं कि जो देख रहा है, उसे उसी तरह कहे भी। कलाकार क्योंकि उसी तरह कहने का मोह नहीं छोड़ते, पत्रकार भी उसी तरह न कहें-न लिखें या अब तो सांसद भी उसको उसकी तरह न कहें, ऐसा जरूरी है। संसद में विपक्षी सांसदों को बाहर निकालने की वजह मिमिक्री ही तो थी। जो भी पीठासीन होता है, उसको लोकतंत्र से कहीं अधिक मिमिक्री का ज्ञान है, इसलिए देश को इससे बचा सकता है। लोग अब डरते हैं कि कहीं उठते-बैठते, खाते-पीते, खांसते या थूकते वक्त मिमिक्री न हो जाए।

डाक्टर व्यस्त हैं कि मरीज चाहे भयंकर से भयंकर या आसान से आसान रोग से मर जाएं, लेकिन किसी भी सूरत खुजली न करें। खुजली रोग है ही मिमिक्री। खुजलाते वक्त खुद मरीज को पता नहीं होता कि वह उससे किसकी मिमिक्री हो रही है। आश्चर्य यह कि हर तरह की बुद्धि या बुद्धिमान लोग खुजली का शिकार हैं। सरकार ने मिमिक्री पर रोक से पहले खुजली को अपराधी माना, लेकिन बुद्धिजीवी होना ही जब खुजली सरीखा माना जाए, तो क्या करेगा देश। एक ओर देश मिमिक्री को पूरी तरह रोक रहा था और दूसरी ओर शांति की मिमिक्री किए बिना न पति घर में और न ही वैवाहिक जीवन में सुरक्षित रहेंगे। दरअसल शांति के लिए शांत रहने की मिमिक्री अनिवार्य है। वर्षों से शादी की मिमिक्री हो रही है, लेकिन शादी फिर भी असली लग रही है। अब असली की पहचान में कुछ तो मिमिक्री की छूट मिले। असली सियासत में मिमिक्री को खोज पाना मुश्किल है, फिर भी सरकार जनता में मिमिक्री से खफा है। बुद्धिजीवी प्राणी के लिए हर असलीयत मिमिक्री की तरह है, इसलिए वह मिमिक्री कलाकारों में देश को सही से देखता है। समाचार चैनलों की मिमिक्री पर चल रहे देश को देख-देख कर मिमिक्री कलाकार मर रहे थे। बुद्धिजीवी ने देखा मिमिक्री से डर कर मिमिक्री का शव भाग रहा था। बुद्धिजीवी से न रहा गया, उसने मिमिक्री का शव उठाया ताकि उसे अपनी खुजली का राज बता सके। शव ने कहा, ‘दरअसल जीवन की मिमिक्री जब पूरी होती है, तो मिमिक्री कलाकार भी शव होता है। हर शव की एक ही मिमिक्री है।’ बुद्धिजीवी शव की टॉलरेंस देख कर हैरान था, वरना देश की भावनाएं तो अब टॉलरेंस से भी आहत होने लगी हैं। मिमिक्री का शव उठाने के लिए बुद्धिजीवी को देश ने दोषी मान लिया, लेकिन उसकी खुजली कम न हुई। -क्रमश:

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक