हिमाचली लैब में आपदा

चांद को धरती पर लाने की मशक्कत में, सूरज के कदम भी रूठ के गुम हो गए। कुछ इसी तरह की नसीहतों में हिमाचल के सरकारी अस्पतालों की कंगाली उभर आई। जिस जोर शोर से अस्पतालों में 142 टेस्ट मुफ्त में कराने की घोषणा हुई, उसी तरह के मातम में इनके बंद होने की खबर है। कारण असाधारण नहीं, लेकिन कहना पड़ेगा कि रेवडिय़ों ने मुफ्तखोरी को तगड़ा सबक सिखा दिया। हिमाचल के अस्पतालों मुफ्तखोरी के कोरिडोर सजा कर जो भी साधुवाद बटोरा, वह अंतत: भौंडा व बेमुरब्बत साबित हुआ। एक ही दिन में कुल 650 अस्पतालों की मुफ्त की लैब मैनेजमेंट धराशायी हो गई और दस हजार मरीज मुफ्तखोरी के तकियाकलाम में अपनी बीमारी का औचित्य खोजते रहे। कल फिर जागीं निजी लैब, वरना इस आपातकाल की स्थिति का कोई वारिस भी नहीं मिलता। प्रदेश में क्रसना लैब अपने अठारह सौ कर्मचारियों के बलबूते हिमाचल की सेहत का निरीक्षण कर रही थी, लेकिन आवश्यक भुगतान न होने के चलते शटर बंद हो गए। कितना आसान है किसी कंपनी के लिए अपने फर्ज को अलविदा कहना और कितना हराम है मुफ्त की रेवड़ी को हर समय पचाना। जाहिर है बुधवार को सारा स्वास्थ्य सिस्टम घुटनों पर आ गया, लेकिन सरकार की ओर से न आपात की स्थिति को संबोधित करते मंत्री दिखे और न ही कोई विकल्प सामने आया। यह इसलिए कि मुफ्त की कोई तिजोरी नहीं होती, यह वक्त की चोरी है जो जिंदा नहीं होती। एक दिन टेस्ट व्यवस्था का ठप होना हजारों जिंदगियों से खेलना भी हो सकता है। दूसरे सरकार की व्यवस्था का निजी हाथों में मुलाजिम होना भी स्थायी उपाय नहीं। इससे पहले भी एक अन्य कंपनी का करार जब टूटा था, तो सरकार का सारा तिलिस्म धड़ाम हुआ था।

यह सारा तामझाम नेशनल हैल्थ मिशन के तहत हिमाचल के स्वास्थ्य क्षेत्र को सहारा दे रहा था, लेकिन फंडिंग की श्रृंखला जब दिल्ली से टूटी या इंतजाम का वादा छोटा कर दिया, तो टेस्टों के बदले कंपनी को भुगतान करती तश्तरी में वित्तीय मजबूरियां उभर आईं। हम अब एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां देश का मूड चुनाव है। वरना अस्सी-पचासी करोड़ नागरिकों को मुफ्त का अनाज देने की संगत में चिकित्सा की मन्नत यूं नजरअंदाज नहीं होती। विडंबना यह कि अब इनसान की आधारभूत जरूरतों के आगे भी सियासी भूत नचाए जा रहे हैं। यह आश्वासन और वादों की कटौती है जो केंद्र के आचरण में भेदभाव के कीड़ों को जन्म दे रही है। जाहिर है वित्तीय असमंजस में फंसे राज्य के लिए केंद्र के पैमानों का रूठ जाना, ऐसा प्रहार है जो अब मरीजों की जिंदगी से भी खेल रहा है। प्रथम दृष्टया लैब सिस्टम का ध्वस्त होना, राज्य सरकार पर तोहमत लगाता है क्योंकि इसी मंडे मीटिंग में जब मुख्यमंत्री प्रदेश के भविष्य से बातें कर रहे थे, तो किसी ने यह क्यों नहीं बताया कि जख्म अस्पतालों में उभर रहे हैं। सरकार के वजूद से चिपके चिकित्सा मंत्री महोदय जनता को बताएं कि उनके दायित्व में 650 अस्पताल क्यों अनाथ हो गए। आश्चर्य यह भी कि हम बड़े-बड़े चिकित्सा संस्थानों की पैरवी में मशगूल हैं, लेकिन सामान्य सी सेवाएं प्रदान करने में अक्षम हैं। हम पर्यटन के आंकड़े में पांच करोड़ सैलानियों का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन सरकारी होटलों में सूना पड़ा है। बहरहाल हर विभाग की जिम्मेदारी ओढ़ रहे मंत्री सुनिश्चित करें कि प्रदेश को सही ढंग से चलाना और वित्तीय व्यवस्था में खुद को बचाना कितना आवश्यक है। सामाजिक परिदृश्य में सरकार की वित्तीय मजबूरियों का आकलन विभ्रम की स्थिति पैदा करता है, जबकि राजनीति के खूंटे, गांठें बांध कर नैतिक जिम्मेदारियों से अल्हदा होने की कसरतों में, बजट की तौहीन को भी अपनी खुदाई मानते हैं। हैरानी यह कि गारंटियों के माहौल में खुशफहमी पालकर एक ओर सरकारें जनता को हंसने के मुगालते तक ले जा रही हैं, जबकि दूसरी ओर हकीकत के अक्स में बेपर्दा नसीहतें चेतावनी दे रही हैं। लैब बंदोबस्त का ढहना सरकारी अस्पतालों के चरित्र और विश्वसनीयता पर प्रश्रचिन्ह लगा रहा है। ऐसे आपातकालीन हालात से रूबरू जनता के लिए यह ऐसी चेतावनी है जो उसे मजबूरीवश निजी अस्पतालों की तरफ शीघ्रता से धकेल देगी।