दुर्गाष्टमी : हर माह अष्टमी को मनाया जाता है उत्सव

दुर्गाष्टमी का हिंदू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। प्रत्येक माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि पर दुर्गाष्टमी व्रत किया जाता है, इसे मासिक दुर्गाष्टमी भी कहते हैं। इस दौरान श्रद्धालु दुर्गा माता की पूजा करते हैं और उनके लिए पूरे दिन का व्रत करते हैं। मुख्य दुर्गाष्टमी, जिसे महाष्टमी कहा जाता है, आश्विन माह में नौ दिन के शारदीय नवरात्र उत्सव के दौरान पड़ती है। दुर्गाष्टमी को दुर्गा अष्टमी और मासिक दुर्गाष्टमी को मास दुर्गाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। भगवती दुर्गा को उबाले हुए चने, हलवा-पूरी, खीर, पुए आदि का भोग लगाया जाता है। इस दिन देवी दुर्गा की मूर्ति का मंत्रों से विधिपूर्वक पूजन किया जाता है। बहुत से व्यक्ति इस महाशक्ति को प्रसन्न करने के लिए हवन आदि भी करते हैं। शक्तिपीठों में इस दिन बहुत उत्सव मनाया जाता है…

दुर्गाष्टमी की कथा

प्राचीन हिंदू शास्त्रों के अनुसार देवी दुर्गा के नौ रूप हैं। उन सब रूपों की अवतार कथाएं इस प्रकार हैं :

महाकाली

एक बार जब प्रलय काल में सारा संसार जलमय था अर्थात चारों ओर पानी ही पानी दिखाई देता था, उस समय भगवान विष्णु की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। उस कमल से ब्रह्मा जी निकले। उसी समय भगवान नारायण के कानों में से जो मैल निकला उससे मधु और कैटभ नाम के दो दैत्य उत्पन्न हुए। जब उन दैत्यों ने चारों ओर देखा तो उन्हें ब्रह्माजी के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दिया। वे दोनों कमल पर बैठे ब्रह्माजी पर टूट पड़े, तब भयभीत होकर ब्रह्माजी ने विष्णु की स्तुति की। विष्णु जी की आंखों में उस समय महामाया योगानिद्रा के रूप में निवास कर रही थी। ब्रह्मा की स्तुति से वे लोप हो गई और विष्णु भगवान नींद से जाग उठे। उनके जागते ही वे दैत्य भगवान विष्णु से लडऩे लगे और उनमें 5000 वर्ष तक युद्ध चलता रहा। अंत में भगवान विष्णु की रक्षा के लिए महामाया ने असुरों की बुद्धि पलट दी।

महालक्ष्मी

एक समय महिषासुर नामक महाप्रतापी एक दैत्य हुआ। उसने समस्त राजाओं को हराकर पृथ्वी और पाताल पर अपना अधिकार जमा सब लोक जीत लिए। जब वह देवताओं से युद्ध करने लगा तो देवता उससे युद्ध में हारकर भागने लगे और भगवान विष्णु के पास पहुंचे। वे उस दैत्य से बचने के लिए विष्णु जी से प्रार्थना करने लगे। देवताओं की स्तुति करने से भगवान विष्णु और शंकर जी बहुत प्रसन्न हुए और उनके शरीर से एक तेज निकला, जिसने महालक्ष्मी का रूप धारण कर लिया। उन्हें सब देवों ने अस्त्र-शस्त्र और अलंकार दिए। इन्हें ले महालक्ष्मी ने महिषासुर दैत्य को युद्ध में मारकर देवताओं का कष्ट दूर किया।

महासरस्वती चामुण्डा

एक समय शुंभ-निशुंभ नामक दो बहुत बलशाली दैत्य हुए थे। उन्होंने युद्ध में मनुष्य क्या, सब देवता जीत लिए थे। जब देवताओं ने देखा कि अब वे युद्ध में नहीं जीत सकते, तब वे स्वर्ग छोडक़र भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे। उस समय भगवान विष्णु की शरीर से एक नारी तेज प्रकट हुई, यही महासरस्वती थीं। महासरस्वती अत्यंत रूपवान थीं। उनका रूप देखकर वे दैत्य मोहित हो गए और उन्होंने सुग्रीव नाम का दूत उस देवी के पास भेजा। उस दूत को देवी ने वापस कर दिया। उसके निराश होकर लौटने पर उन दोनों ने सोच-समझकर अपने सेनापति धूम्राक्ष को सेना सहित भेजा, उसे देवी ने सेना सहित मार दिया। फिर चण्ड-मुण्ड देवी से लडऩे आए और वे भी मारे गए। तत्पश्चात रक्तबीज नाम का दैत्य लडऩे आया, उसे भी देवी ने मार डाला। अंत में शुंभ-निशुंभ स्वयं चामुण्डा से लडऩे आए और देवी के हाथों मारे गए।

योगमाया

जब कंस ने वसुदेव-देवकी के छह पुत्रों का वध कर दिया और सातवें बलराम जी रोहिणी के गर्भ में प्रवेश होकर प्रकट हुए, तब आठवां जन्म (अवतार) कृष्ण का हुआ। उसी समय गोकुल में यशोदा जी के गर्भ से योगमाया का जन्म हुआ जो वसुदेव के द्वारा कृष्ण के बदले में मथुरा लाई गई। जब कंस ने कन्या रूपी योगमाया को मारने के लिए पटकना चाहा तो वह हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई और देवी का रूप धारण कर लिया। इसी योगमाया ने कृष्ण के साथ योगविद्या और महाविद्या बनकर कंस, चाणूर आदि शक्तिशाली असुरों का संहार कराया।

रक्तदन्तिका

एक बार जब पृथ्वी पर वैप्रचित नाम के असुर का उत्पात बढ़ा, उसने मनुष्य ही नहीं बल्कि देवताओं तक को बहुत दु:ख दिया। पृथ्वी और देवताओं की प्रार्थना पर उस समय देवी दुर्गा ने रक्तदन्तिका नाम से अवतार लिया और असुरों का भक्षण किया। वह देवी असुरों को मारकर रक्तपान किया करती थी। इस कारण इनका नाम रक्तदन्तिका पड़ा।

शाकम्भरी

एक बार पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक वर्षा न हुई। तब अन्न-जल के अभाव में समस्त प्रजा मरने लगी। इस कारण चारों ओर हाहाकार मच गया। समस्त जीव भूख से व्याकुल होकर मरने लगे। उस समय समस्त मुनियों ने मिलकर देवी भगवती की उपासना की, जिससे दुर्गा जी ने शाकम्भरी नाम से स्त्री रूप में अवतार लिया और उनकी कृपा से वर्षा हुई।

दुर्गा

एक समय दुर्गम नाम का एक राक्षस हुआ। उसके डर से पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग और पाताल लोक के निवासी भी भयभीत रहते थे। ऐसी विपत्ति के समय भगवान की शक्ति ने दुर्ग या दुर्गसैनी के नाम से अवतार लिया, जिसने दुर्गम राक्षस को मारकर हरिभक्तों की रक्षा की। इसी प्रकार भ्रामरी व चंडिका अवतार की भी अपनी-अपनी कथाएं हैं।