गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि महात्मन ! यह द्यौ एवं पृथ्वी लोक का मध्य अर्थात अंतरिक्ष और समस्त दिशाएं एक आपके द्वारा ही व्याप्त हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र अर्थात प्रचंड रूप को देखकर तीनों लोक व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं…
गतांक से आगे…
शोक  11/20 में श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि महात्मन ! यह द्यौ एवं पृथ्वी लोक का मध्य अर्थात अंतरिक्ष और समस्त दिशाएं एक आपके द्वारा ही व्याप्त हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र अर्थात प्रचंड रूप को देखकर तीनों लोक व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। भावार्थ: पहले के श£ोकों की व्याख्या में स्पष्ट किया गया है कि योग विद्या के प्रथम प्रभाव में अर्जुन उस निराकार ब्रह्म के गुणों/लीलाओं को श्रीकृष्ण महाराज की दी हुई दिव्य दृष्टि से श्रीकृष्ण महाराज के भौतिक शरीर में देख रहा है। फलस्वरूप वह प्रेम मग्न एवं योग विद्या के प्रभाव से श्रीकृष्ण महाराज को ही निराकार ब्रह्म मान रहा है। यह अर्जुन का मानना उसका निजी फैसला था, जिसे अर्जुन ने शोक  11/18 में (मे मत:) कहकर स्पष्ट किया है। क्योंकि शोक  11/20 में भी जो कुछ गुण कहे गए हैं, वह केवल एक निराकार ब्रह्म में ही घटित होते हैं, अन्य किसी में भी नहीं।

क्योंकि वेदों में इन सभी गुणों का वर्णन अजर, अमर अविनाशी, जन्म-मरण रहित केवल एक निराकार ब्रह्म के लिए ही कहा गया है, अन्य किसी के लिए नहीं कहा गया। जैसे शोक  11/20 में यह द्युलोक, पृथ्वीलोक और दोनों के बीच का आकाश/ अंतरिक्ष लोक पीछे कहे यजुर्वेद मंत्र 31/1, 40/1 एवं अन्य वेदों के अनेक मंत्रों से यह सिद्ध है कि वही एक निराकार, परमेश्वर जन्म-मरण से परे है और एक रूप है।
अर्थात उसका रूप सदा एक सा रहता है, किसी भी नियम से बदल नहीं सकता। अत: परमेश्वर अपने निराकार रूप को त्यागकर अवतार नहीं ले सकता। सभी उपनिषदों एवं शास्त्रों में इन सब गुणों का वर्णन उा एक निराकार परमेश्वर के लिए ही किया गया है। – क्रमश: