ओशो
परमात्मा की उपलब्धि के लिए धैर्य बहुत जरूरी है। प्रभु को पाना चाहते हैं, तो प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। हो सकता है कई जन्मों की प्रतीक्षा करनी पड़े। अगर आपने धैर्य खोया तो फिर सारा खेल खत्म। प्रभु को पाने की चाह में आपको समय की सीमा से परे हो जाना होगा और जब आप समय की सीमा को भूल जाते हैं, परमात्मा का साक्षात्कार उसी समय हो जाता है। व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चला है, उसने अनंत की फसल काटनी चाही है, उतना ही धैर्य भी चाहिए। धैर्य का अर्थ यह है कि तुम अपेक्षा मत करना। धैर्य का अर्थ यह है कब होगा यह मत पूछना। जब होगा, उसकी मर्जी। जब हो जाएगा, तब स्वीकार है। अनंत काल व्यतीत हो जाएगा तो भी तुम यह मत कहना कि मैं इतनी देर से प्रतीक्षा कर रहा हूं, अभी तक नहीं हुआ! एक बड़ी पुरानी हिंदू कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर रही है कि नारद स्वर्ग जा रहे हैं और उन्होंने एक बूढ़े संन्यासी से पूछा, कुछ खबर-वबर तो नहीं पूछनी है, तो उस बूढ़े संन्यासी ने कहा कि परमात्मा से मिलना हो तो जरा पूछ लेना कि कितनी देर और है क्योंकि मैं तीन जन्मों से साधना कर रहा हूं! वह बड़ा पुराना तपस्वी था।
नारद जी ने कहा, जरूर पूछ लूंगा। उसके ही पास एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक नवयुवक बैठा हुआ अपना एकतारा बजा रहा था, गीत गा रहा था। नारद ने सिर्फ मजाक में उससे पूछा कि क्यों भाई, तुम्हें भी तो कोई बात नहीं पुछवानी है भगवान से, मैं जा रहा हूं स्वर्ग। वह अपना गीत ही गाता रहा। उसने नारद की तरफ आंख उठा कर भी न देखा। नारद ने उसको हिलाया तो उसने कहा कि नहीं, उसकी कृपा अपरंपार है। जो चाहिए, वह मुझे हमेशा मिला ही हुआ है, कुछ पूछना नहीं है। मेरी तरफ से उसे कोई तकलीफ मत देना। मेरी बात ही मत उठाना, मैं राजी हूं और सभी मिला हुआ है। बन सके तो मेरी तरफ से धन्यवाद दे देना। नारद वापस लौटे, उस बूढ़े संन्यासी को जाकर कहा कि क्षमा करना भाई! मैंने पूछा था। उन्होंने कहा कि वह बूढ़ा संन्यासी जिस वृक्ष के नीचे बैठा है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म अभी और लगेंगे। बूढ़ा तो बहुत नाराज हो गया। वह जो पोथी पढ़ रहा था, फेंक दी, माला तोड़ दी, गुस्से में चिल्लाया कि हद हो गई! अन्याय है। यह कैसा न्याय? तीन जन्म से तप कर रहा हूं, कष्ट पा रहा हूं, उपवास कर रहा हूं अभी और इतने, यह नहीं हो सकता।
उस युवक के पास जाकर नारद ने कहा कि मैंने पूछा था, तुमने नहीं चाहा था, फिर भी मैंने पूछा था। उन्होंने कहा कि वह जिस वृक्ष के नीचे बैठा है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म अभी और लगेंगे। वह युवक तत्क्षण उठा, अपना एकतारा लेकर नाचने लगा और उसने कहा, गजब हो गया। मेरी इतनी पात्रता कहां, इतनी जल्दी जमीन पर कितने वृक्ष हैं! उन वृक्षों में कितने पत्ते हैं! सिर्फ इस वृक्ष के पत्ते, इतने ही जन्मों में हो जाएगा। यह तो बहुत जल्दी हो गया, यह मेरी पात्रता से मुझे ज्यादा देना है। इसको मैं कैसे झेल पाऊंगा। इस अनुग्रह को मैं कैसे प्रकट कर पाऊंगा। वह नाचने लगा खुशी में और कहानी कहती है, वह उसी तरह नाचते-नाचते समाधि को उपलब्ध हो गया। उसका शरीर टूट गया। जो अनंत जन्मों में होने को था, वह उसी क्षण हो गया। जिसकी इतनी प्रतीक्षा हो, उस क्षण हो ही जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आपको अपने अंदर ऐसी जिज्ञासा को पैदा करना है कि आपका एक ही लक्ष्य होना चाहिए, उस परमात्मा को कैसे पाया जाए। जब उसकी रहमत होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता है।