आज के वैवाहिक संस्थान से जुड़ा मनोविज्ञान

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

विवाह एक ऐसी पावन परंपरा है, जो सदियों से पूरे विश्व में प्रचलित है। बेशक अलग -अलग देशों में अलग-अलग धर्मों में एवं जातियों में शादी के रीति-रिवाजों में भिन्नताएं हैं, परंतु इस पवित्र गठबंधन में समाहित भावना एक समान है। जो विभिन्न समुदायों में पारंपरिक पात्रता को निस्संदेह अंगीकार करती आई है। दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि वर्तमान विवाह के गठबंधन का पावन स्वरूप शक्लो सूरत बिगाड़ कर औचित्यहीन स्तर तक चला जा रहा है। डर है कि पहले सा पवित्र गठबंन्न कहीं ऐसा वीभत्स रूप अख्तियार न कर ले कि विवाह परंपरा कामुक प्रवृत्तियों को किसी और ही दिशा की ओर ले जाकर केवल शारीरिक संबंधता का सामाजिक गठबंधन ही बनकर न रह जाए। वैसे भी लिव इन रिलेशनशिप की बढ़ती गैरवाजिब तहजीब ने पूर्व की विवाह प्रथा को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।

व्यस्क युवक-युवतियों को युवावस्था में प्रवेश करते ही शादी के गठबंधन में बांध देना कामुकता व शारीरिक जरूरतों को व्यवस्थित तरीके से सरलता, सहजता व औचित्यतापूर्वक सलीके से पूर्ण करने की एक सामाजिक परंपरा रही है, जो प्राचीन कालखंडो से प्रचलित रहकर परंपराओं व संस्कृति को मर्यादा में बांधे रखती थी, उनकी पात्रता को अंगीकार किए रखती थी। युवावस्था के परिवर्तनों से प्रभावित मनोविज्ञान की शारीरिक जरूरतों से सहसंबंधता का भी पोषण करती थी, जिसके परिणाम स्वरूप सभ्य समाज का संचालन सुचारू रूप से चलता रहता था।

जिसके विपरीत आज के व्यस्क युवाओं की मानसिकता तो छोड़ो अवयस्क भी युवावस्था पूर्व ही युवक-युवतियां विकृत कामोत्तेजक इच्छाओं के वशीभूत सभी परंपराओं, मर्यादाओं एवं सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख कामुक प्रवृत्तियों को ही सर्वोंच्च प्राथमिकता देकर शादी के पावन गठबंधन का मजाक बना रही हैं। इस सामाजिक दुर्दशा को देखकर बड़े बुजुर्ग सिर धुन रहे हैं वर्तमान में वीभत्स कामुक मनोविज्ञान के भौकाल का ही बोलबाला है, जो गरीबों की झुग्गी-झोपडिय़ों से लेकर अमीरों के महलों चौबारों तक सब जगह छाया हुआ है। यदि अपवाद हैं भी तो गौण गिनती में है।

समाज के नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन यूं ही बढ़ता गया, तो वो दिन दूर नहीं जब वैवाहिक संस्थान मात्र उपहास बनकर ही पूर्व सामाजिक नैतिकताओं, परंपराओं, उच्च मूल्यों वाली संस्कृति को लील लेगा। यदा कदा कहीं वैवाहिक रस्म हुई भी, तो औपचरिकता मात्र ही रह जाएगी। कुत्सित यौन मानसिकताओं का यह वीभत्स रूप पाश्चात्य संस्कृति की भेंट चढ़ जाएगा। भारतीय परंपराएं इतिहास की मात्र धरोहर का रूप ही बन कर रह जाएंगी। माता-पिता, गुरुजन, धार्मिक गुरु, बुद्धिजीवी एवं समाजसेवी संस्थाओं, शिक्षाविदों, मनोविदों, समाजशास्त्रियों सभी का सामुहिक उत्तरदायित्व है कि समय रहते पुन: प्राचीन नैतिक मूल्यों, सामाजिक मान्यताओं, संस्कृति व परंपराओं को अंगीकार करके उन्हें स्थापित करने का प्रयास करें।

साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, रचनाकारों का भी इस दिशा में प्रयत्न सराहनीय होगा। सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक प्रभावी नीतियों को बनाकर उनकी सुपालना, पुलिस प्रशासन, न्यायविदों के माध्यम से सुनिश्चित करनी होगी। युवाओं को पुन: शादी के पवित्र गठबंधन को अंगीकार कर समर्पण की भावना समाहित करने के उद्देश्य से कार्य में आयोजित करना भी समय की मांग है। अन्यथा वर्तमान काल की कुपोषित मानसिकताएं पूर्व की सुनियोजित, स्थापित पोषित उच्च मान्यताओं को अवांछित ब्लैक होल में ले जाकर उनका नामोनिशान ही मिटा देगी। इसलिए समय रहते युवा पीढ़ी को इस पवित्र गठबंधन के महत्व को समझाना होगा ताकि वैवाहिक जीवन का सही अर्थ समझ कर वह इसे अपने जीवन में अपना सकें। क्योंकि आने वाले समय में देश का भविष्य तो युवा पीढ़ी पर ही निर्भर करता है।