शाकंभरी देवी जयंती

हिंदू मान्यता के अनुसार पौष माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि से पौष मास की पूर्णिमा तक शाकंभरी नवरात्रि मनाई जाती है। पौष मास की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। देवी शाकंभरी को देवी दुर्गा का अवतार मना जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार देवी शाकंभरी को दस महाविद्याओं में से एक माना जाता हैं। देवी शाकंभरी की श्रद्धा, भक्ति और विधि-विधान के साथ साधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश मे एक महादैत्य ने जन्म लिया उसका नाम था दुर्गम। दुर्गमासुर ने कठोर तपस्या द्वारा परमपिता ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके चारों को वेदो को अपने अधीन कर लिया और साथ ही यज्ञ आदि से देवताओं को प्राप्त होने वाली शक्तियां और भाग भी अपने अधीन कर लिया। वेदों का असुर के अधीन होना एक बहुत विकट समस्या बन गई थी। जिसके कारण दैत्य शक्तिशाली होते जा रहे थे और देवताओं की शक्तियां क्षीण होने लगी। पूरी धरती दानवों के उत्पात से त्रस्त हो गई थी। साधू-संन्यासी व ऋषि-मुनियों का जीवन मुश्किल हो गया था। धरती पाप के बोझ से दबी जा रही थी। धरती पर धर्म, कर्म बिलकुल रुक गया था। इसके कारण वर्षों तक धरती पर वर्षा नही हुई और सभी तरफ अकाल, सूखा और भुखमरी फैल गई थी। धरती की ऐसी अवस्था देखकर ऋषि-मुनियों और देवताओं ने मिलकर देवी आदिशक्ति का आह्वान किया। अपने भक्तों के आह्वान पर देवी प्रकट हुई। उन्होंने जब पृथ्वी की ऐसी दुर्दशा देखी, तो उनके नेत्रों से आंसू निकलने लगें। देवी ने तब शाकंभरी अवतार लिया, उनके सौ नेत्र थे और उनके नेत्रों से अश्रुओं की बारिश होने लगी। देवी के नेत्रों से होने वाली बारिश से धरती का सूखा समाप्त हो गया। देवी ने अपने शरीर के अंगों से फल, वनस्पति आदि प्रकट किए। जिससे धरती पर हरियाली फैल गई। इसलिए देवी के इस रूप को शाकंभरी के नाम से पुकारा जाता है। देवी की कृपा से वर्षों का अकाल दूर हुआ और धरती के लोगों की भूख शांत हुई। देवी ने दुर्गमासुर को उसकी सेना के साथ यमलोक भेज कर देवाताओं और ऋषि-मुनियों का संताप हर लिया। सौ नेत्रों के कारण देवी शाकंभरी को शताक्षी भी कहा जाता हैं। इनकी उपासना करने से जातक को धन-धान्य, समृद्धि प्राप्त होती है और उसका जीवन सुखमय हो जाता है।

हिंदू मान्यता के अनुसार पौष माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि से पौष मास की पूर्णिमा तक शाकंभरी नवरात्रि मनाई जाती है। पौष मास की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। देवी शाकंभरी को देवी दुर्गा का अवतार मना जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार देवी शाकंभरी को दस महाविद्याओं में से एक माना जाता हैं। देवी शाकंभरी की श्रद्धा, भक्ति और विधि-विधान के साथ साधना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्याक्ष के वंश मे एक महादैत्य ने जन्म लिया उसका नाम था दुर्गम। दुर्गमासुर ने कठोर तपस्या द्वारा परमपिता ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके चारों को वेदो को अपने अधीन कर लिया और साथ ही यज्ञ आदि से देवताओं को प्राप्त होने वाली शक्तियां और भाग भी अपने अधीन कर लिया। वेदों का असुर के अधीन होना एक बहुत विकट समस्या बन गई थी। जिसके कारण दैत्य शक्तिशाली होते जा रहे थे और देवताओं की शक्तियां क्षीण होने लगी। पूरी धरती दानवों के उत्पात से त्रस्त हो गई थी। साधू-संन्यासी व ऋषि-मुनियों का जीवन मुश्किल हो गया था। धरती पाप के बोझ से दबी जा रही थी। धरती पर धर्म, कर्म बिलकुल रुक गया था। इसके कारण वर्षों तक धरती पर वर्षा नही हुई और सभी तरफ अकाल, सूखा और भुखमरी फैल गई थी। धरती की ऐसी अवस्था देखकर ऋषि-मुनियों और देवताओं ने मिलकर देवी आदिशक्ति का आह्वान किया। अपने भक्तों के आह्वान पर देवी प्रकट हुई। उन्होंने जब पृथ्वी की ऐसी दुर्दशा देखी, तो उनके नेत्रों से आंसू निकलने लगें। देवी ने तब शाकंभरी अवतार लिया, उनके सौ नेत्र थे और उनके नेत्रों से अश्रुओं की बारिश होने लगी। देवी के नेत्रों से होने वाली बारिश से धरती का सूखा समाप्त हो गया। देवी ने अपने शरीर के अंगों से फल, वनस्पति आदि प्रकट किए। जिससे धरती पर हरियाली फैल गई। इसलिए देवी के इस रूप को शाकंभरी के नाम से पुकारा जाता है। देवी की कृपा से वर्षों का अकाल दूर हुआ और धरती के लोगों की भूख शांत हुई। देवी ने दुर्गमासुर को उसकी सेना के साथ यमलोक भेज कर देवाताओं और ऋषि-मुनियों का संताप हर लिया। सौ नेत्रों के कारण देवी शाकंभरी को शताक्षी भी कहा जाता हैं। इनकी उपासना करने से जातक को धन-धान्य, समृद्धि प्राप्त होती है और उसका जीवन सुखमय हो जाता है।