हम पूर्ण हैं कहां

पूर्ण राज्यत्व की सौगंध खाते हुए आधी सदी गुजर गई, लेकिन हम घोषणा व संकल्प के बीच सीधा रास्ता नहीं चुन पाए। इसके ऐवज में हमारी लड़ाइयां बढ़ गईं तो अदालतें बढ़ा दी गईं। ग्रामीण आर्थिकी तहस-नहस हो गई, लेकिन पंचायत का चुनाव महंगा और छप्पर को छप्पर से लड़ाने की तस्वीर हो गया। जागरूक हिमाचलियों के तमगे ने सामूहिकता और सामुदायिक भावना के सारे छोर छीन लिए, अलबत्ता हमने नदी से किनारे, बावड़ी से जल स्रोत और कूहल से उसकी रफ्तार छीन ली। ऐसे में क्या रियासतों का हिमाचल बेहतर था जहां जनता खुद त्योहार बुनती थी या जहां साझी रसोई का धुआं मंडी की प्रदक्षिणा करता था। क्या सुजानपुर के मैदान या चंबा के चौगान जैसा कोई और मैदान हम इन पचास सालों में बना पाए। क्या कांगड़ा चाय के बागान को बढ़ा पाए। आज भी भूरिसिंह, कांगड़ा या राज्य संग्रहालय की चाक चौबंद दीवारों के भीतर कहीं कांगड़ा कलम चीख रही है या राज्य का कलात्मक माहौल कहीं गुम है। शोर बहुत है नगाड़ों का, लेकिन खबर इन पर पाबंदी की है। बेशक एक नए हिमाचल की कसरतों के हमने बीज बोए, उगाए और काटे भी, मगर हमारे कृषि-बागबानी विश्वविद्यालय अब आयातित अनुसंधान की शाखाओं पर किसान-बागबान की जन्मपत्री देख रहे हंै। किसान देश की जन्मपत्री में किसान निधि के छह हजार रुपयों पर पल रहा है और खेत में वानर नृत्य मशहूर हो गया। अगर यही हमारे राज्य की संपूर्णता है, तो कोई खोज कर बताए कि बड़सर का गुड़ और शक्कर कहां चली गई।

कहां चली गई बगली की बासमती की खुशबू और कहां भटक गया घुमारवीं का जिमीकंद। अब भरमौर-बिलासपुर की मक्की के बीज नदारद हैं और सिरमौर का अदरक गंजा हो गया। न रहे गन्ने के खेत और नहीं बचे खेत की मुंडेर पर खिलते हुए चकोतरे और माल्टे। अब कहां बची किन्नौर की पट्टी और सिरमौर का लोइया, हर हिमाचली की चमड़ी पर चढ़ गया पावरलूम का नशा। तिरस्कृत सत्तू ने पिज्जा को हलाल किया, तो अम्मा की लोरियों पर शगुन बन कर और डीजी के शोर में नाटी गुम है। हम पूर्ण नहीं, बल्कि लंबे हो गए। कभी देखी होंगी जेएनआरएम की लंबी गाडिय़ां उन्हीं छोटी सडक़ों पर जो बताती हैं कि ये मूंछें घास की नहीं, हमारी तरक्की की नाक हंै। और यही तरक्की की नाक राजनीति के मतवालों ने जब धारण की तो हर सत्ता एक दुकान, खुशफहमी की दीवार और प्रशंसकों की भीड़ में भ्रम की दरबार हो गई। क्या हम 75 हजार करोड़ का उधार उठाकर कभी पूर्ण हुए। क्या हम जरूरत से अधिक घाटे के सरकारी उपक्रम चलाकर पूर्ण हुए। क्या हम लगातार सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों पर मेहरबान होकर राज्य को पूर्ण बना पाए। वर्षों तक या आज भी राज्य की नियमावली की कठोरता निजी क्षेत्र की बांह मरोड़ कर सोच रही कि इस तरह आत्मनिर्भरता लायक धन बटोर लेगी। मजेदार बात यह कि हम शराब का छबील लगाकर सरकारी खजाने को ताकत दे रहे हैं। विभागीय लक्ष्यों में धनोपार्जन की विधियों में कुछ विभाग महती योगदान को उतारू रहते हैं, जबकि बिना पार्किंग सुविधा के आनलाइन जुर्माने की झड़ी लगाकर पुलिस बटोर लेती है खासा धन। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दरअसल निजी उद्योग धंधों को परास्त करने की ऐसी छड़ी है, जो कभी घाव देने से रुकती नहीं। तीसरा खजाना खनन है, जो हिमाचल की दोपहरी में अंधेरों की कालिख लिए प्रदेश को खोद रहा है।

आश्चर्य यह कि हर सरकार निजी निवेश की अलंबरदार बन कर खड़ी रही, लेकिन मोर्चे पर आकर सारा तूफान हार गया। हमने अपने युवा को सरकारी नौकर बनना सिखा दिया और यही घोषणा हमारे पूर्ण राज्यत्व की निशानियों में सबसे चमत्कार चुंबक की तरह हमें खींच रही है। बदलने में कोई ऐसा संकल्प नहीं जो जीना सिखा सके। स्वाभिमान सिखा सके। कर्जमुक्त हिमाचल को राह दिखा सके। किफायत से सरकारी खर्च उठाना सिखा सके। इस दौरान हमने तो अपनी बोली और अपनी संस्कृति तक छोड़ दी। हिमाचल को हिमाचल तक पहुंचाने के लिए कई रियासतें और पंजाब पुनर्गठन से आकर मिले पर्वतीय क्षेत्रों का श्रम रहा, लेकिन आज तक हम बोलियों और अलग-अलग धामों में बंटे पहाड़ी हैं। क्या हमारी एक धाम, एक नृत्य और एक भाषा का संकल्प पूरा नहीं हो सकता। क्या हम एक पूर्ण प्रदेश के तत्वों को सहेज कर समृद्ध बना सके। क्या हमने ऐसी राजनीति और सुशासन का शृंगार किया जो सिरमौर से भरमौर और चन्नौर से किन्नौर तक एक सरीखी बात कर सके तथा राज्य के एक संकल्प को साध सके। नहीं, अभी भी हम बिखरे और अपनी-अपनी उधेड़बुन में खुश हैं कि कांगड़ा के गद्दियों को ट्राइबल स्टेटस और गिरीपार भी इसी सीमा में प्रवेश कर गया। हम हिमाचल की गलियां बना कर कैसे पूर्ण होंगे, कोई इसका उत्तर नहीं जानता।