शव संवाद-31

सोशल मीडिया पांव पर चलता नहीं, कंधे पर सवार हो जाता है। इसे कितने कंधे चाहिए, गिन नहीं पाता। आश्चर्य यह कि सोशल मीडिया के विचार, तर्क और लय किसी को भी बुद्धिहीन कर सकते हैं, फिर भी लोग इस माध्यम से अपनी बुद्धि को आजमाने का मौका नहीं चूकते। बुद्धिजीवी मुगालते में था कि वह सोशल मीडिया का चैंपियन बन जाएगा और दिमाग के खेल में सब पर भारी पड़ेगा। शुरुआत में ऐसा हुआ, लेकिन बुद्धिजीवी को शीघ्र ही मालूम हो गया कि यहां बुद्धि की कोई औकात नहीं, जो चल गया वही स्वीकार्य सामान है। सोशल मीडिया में विचार या संदेश एक उत्पाद है, जिसकी मार्केटिंग होती है। वैसे भी समाज अब एक उत्पाद ही तो है जिसे सोशल मीडिया के संदेश बना और पका रहे हैं। हर उत्पाद के लिए कीमत का एक टैग जरूरी है और इसीलिए आज का मीडिया और सोशल मीडिया समाज को सियासत का उत्पाद मानकर टैग लगा रहे हैं। कभी सामाजिक ऊर्जा से निकलती थी दूर तक चलने वाली राजनीति, लेकिन अब सियासत की क्षमता में समाज चलता है। देश को चलाने के लिए सोशल मीडिया अब अवतार है। किसी का करिश्मा तो किसी की धार है। सोशल मीडिया अपने में जन्म दिन और अपने में मृत्यु दिवस लेकर चलता है। आपको नेहरू का हाल पूछते गांधी मिल जाएंगे और गांधी को पटेल बता नहीं पाएंगे कि देश में आज वह क्यों चलाए जा रहे हैं। ऐसे में बुद्धिजीवी करे भी तो क्या। पूजा के लिए समाज किसी विवादित मस्जिद को ढूंढ रहा है, तो अपनी अपनी जाति में ही जन प्रतिनिधि खोज रहा है। उसे विश्वास है कि एक दिन जातियों का हिसाब उसके लिए उसके ही नैन नक्श का विधायक सामने ले आएगा, तब वह सोशल मीडिया पर बता पाएगा कि उसकी जाति भी इसमें चलती है। सोशल मीडिया की मुक्का-मुक्की में विचार कितना प्रधान, यह अंदाजा मात्र एक संदेश से हो जाता है।

बुद्धिजीवी के रिश्ते जब जब मरते हैं, सोशल मीडिया पर उसका संदेश अमर हो जाता है। उसका विश्वास है कि आइंदा भी जब कभी वह अपने किसी रिश्तेदार की मौत को सोशल मीडिया पर बताएगा, सारा समाज आंसू बहाएगा। एक दिन वह अपनी ही मौत का संदेश बना बैठा और अपनी तमाम असफलताओं को छिपाते हुए सोशल मीडिया पर कहने लगा कि बुद्धिजीवी की मौत पर उसे अफसोस है। वह खुद को सोशल मीडिया पर मार रहा था, लेकिन प्रतिक्रिया में जाने अनजाने भी गुणगान करने लगे। पहली बार उसने देखा कि भारत में एक अकेला मौत का संदेश सब पर भारी है। सब पर भारी पडऩे के लिए एक अदद मौत का संदेश काफी है। बुद्धिजीवी की लड़ाई अपने ही संदेश से थी, जो मरने की झूठी सूचना को अपनी जीत में बदल रहा था। बैठे बिठाए यह संदेश एक जीवित बुद्धिजीवी को अमर बना रहा था, जबकि सही और तथ्यपूर्ण सूचनाएं आजकल मरती ही मीडिया के कारण हैं। बुद्धिजीवी ने तय किया कि सोशल मीडिया में संदेशों के शवों को हरिद्वार पहुंचाएगा। ये सारे संदेश मरे क्योंकि देश की जनता मरने की खबर पर ही जिंदा है।

किसी ने सोशल मीडिया पर कहा था कि विपक्ष का गठबंधन सशक्त होगा, लेकिन जनता ने इस संदेश को मार दिया। किसी ने कहा कि महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे देश में चलने चाहिएं, जनता ने इन्हें भी निपटा दिया। फिर संदेश चला कि किसान को उसका हक मिले, लेकिन लोगों ने उसकी उगाई दाल-सब्जी खाकर इस संदेश को भी मार दिया, लेकिन जिंदा संदेशों में जातियों का टकराव, धर्म का उन्माद, सरकारों के जुमले, अफसरशाही के हमले जिंदा थे। अंतत: बुद्धिजीवी ने अपनी ही मौत के फर्जी संदेश की जिंदा हालत पर पहली बार प्रहार किया। वह बार-बार कोशिश करता, मगर उसकी मौत की अफवाह का संदेश जनता का प्रश्रय पा रहा था। संदेश चीखने लगा। उसे सुनकर भारत की जनता विश्वस्त थी कि बुद्धिजीवी जरूर मरा होगा और मरी होगी वह भावना जो देश में विशुद्ध लोकतंत्र के सपने, सत्ता के शुद्ध आचरण और मतदान के आत्मसम्मान के बारे में चिंतित हैं। सोशल मीडिया के प्रभाव से जहां राष्ट्र के हितैषी, देश के लिए और जनता की आंखें खोलने के मुद्दे मर रहे थे, वहां सोशल मीडिया एक अफवाह के जरिए ही सही, बुद्धिजीवी के मरने की खबर पर जिंदा रहना चाहता था। -क्रमश:

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक