शव संवाद-32

बुद्धिजीवी आज तक यह तय नहीं कर पाया कि वह पालतू है या लावारिस। वह भटक कर भी आवारा नहीं हो पाया, जबकि देश के हर ठहराव में आवारगी बढ़ रही है। न जाने बुद्धिजीवी को क्या सूझी कि उसने एक आवारा कुत्ते को जंजीर डाल दी। बुद्धिजीवी का यह कुत्ता भी देखते-देखते उसी की तरह हो गया। वह यूं ही हर किसी को देखते-देखते भौंकने लगता। कुत्ते को भ्रम यह था कि भौंकने से सब ठीक हो जाएगा। बिना पहचाने-जाने भौंकने की आदत ने उसे गली का ऐसा चरित्र बना दिया जो किसी भी सूरत में एडजस्ट नहीं करना चाहता। पड़ोसी अब सोचने पर विवश होने लगे कि बुद्धिजीवी और कुत्ते के बीच आखिर चरित्र में इतनी समानता हुई कैसे। न बुद्धिजीवी उन्हें लांघने देता और न ही उसका कुत्ता, हालांकि गली में न लोग उसकी परवाह करते और न ही कुत्ते। गली में आवारा कुत्तों के संग बाकी पालतू भी घुल-मिल गए थे, लेकिन बुद्धिजीवी का कुत्ता अपने आवारापन को भूल कर नए चरित्र में आ चुका था। बुद्धिजीवी ने दरअसल एक दिन सुबह की सैर करते हुए देखा था कि सडक़ पर कई आवारा कुत्ते घूम रहे थे, लेकिन एक लगातार उसके ऊपर भौंक रहा था। उसे लगा कि जो आवारा होकर भी नहीं भौंका, वह कायर है, लेकिन जो भौंक पाया वही बहादुर है। उसने भौंकने वाले कुत्ते को धीरे-धीरे अपना बना लिया। धीरे-धीरे एक आवारा कुत्ता बुद्धिजीवी के झांसे में आकर पूंछ हिलाते-हिलाते उसके पीछे चलते-चलते उसी के घर पहुंच गया था।

तब से यह नाता जुड़ गया। बुद्धिजीवी के लिए नैतिकता, देशभक्ति, राष्ट्र प्रेम और समाज के सारे प्रश्न अब कुत्ते की प्रवृत्ति पर टिके थे। कुत्ते के भौंकने मात्र से बुद्धिजीवी को लगता कि एक वही नहीं, पूरा देश सुरक्षित है। आवारा कुत्ते के कायाकल्प पर पालतू कुत्तों के मालिक हैरान हैं, क्योंकि बहस अब यह चल पड़ी कि ज्यादा वफादार कौन – पालतू या आवारा। कुत्ते की वफादारी भौंकने से है, इसलिए पालतू फेल होने लगे। पालतू बेशक मालिक का आदेश मानते। उनके कहने पर उठते-बैठते, करतब दिखाते, लेकिन अपनी मर्जी से भौंक भी नहीं पाते, बल्कि मालिक को पहले भौंकना पड़ता है ताकि पालतू अनुसरण करें। अब बुद्धिजीवी इसी फार्मूले से इनसानों में आवारा व पालतू का भेद समझने लगा है। वह राजनीति से पत्रकारिता तक और प्रशासन से समाज तक पालतू ही पालतू देख रहा है। यही वजह है कि या तो वह खुद या उसके द्वारा अपनाया गया आवारा कुत्ता ही देश के लिए भौंक रहे हैं। एक दिन भौंकते-भौंकते उसका कुत्ता शहर में निकल गया। वह हर पालतू को देखकर भौंक रहा था। अंतत: वह अखबार कार्यालय के बाहर रद्दी अखबार को देख गुस्सा गया। उसे हर शब्द पालतू दिखाई दे रहा था। वह पालतू जैसी खबरों से भरी रद्दी को चबाते-चबाते भूल गया कि अंतत: ऐसी सफाई से उसे ही मरना पड़ेगा।

पेट में जाते ही पालतू खबरों ने उसे मार दिया। किसी ने खबर दी तो बुद्धिजीवी ढूंढते-ढूंढते वहां पहुंच गया, जहां लोग चर्चा कर रहे थे कि रद्दी ने कुत्ते को मारा या खबर कातिल थी। तभी भीड़ से कोई चीखा, ‘जरूर कुत्ते का मालिक इसे खबर और जहर में अंतर नहीं सिखा पाया होगा।’ अनसुना करते हुए बुद्धिजीवी ने कुत्ते के मुंह में फंसी अखबार खींच डाली। मुंह से निकली अखबार की मुख्य खबर थी, ‘हर तरह के विपक्ष को घुस कर मारेंगे।’ कुत्ते के शव में बुद्धिजीवी को पहली बार देश का भविष्य नजर आ रहा था। -क्रमश:

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक