पहले रिश्ते निभाए जाते थे आज निपटाए जाते हैं

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

जब से समाज की संरचना हुई है, तभी से रिश्तों की बड़ी अहमियत रही है। रिश्तों में पारिवारिक अंतरंग रिश्ते, निकट संबंधियों के, निकटतम मित्रों के, पड़ोसियों के रिश्ते, व्यावसायिक रिश्ते, सभी का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान व योगदान है, जो खुशियों को दोबाला करते हैं व दुखों को संाझा करके आधा कर देते हैं। समस्याओं के निवारण करने हेतु भी रिश्ते आवश्यक हैं। व्यक्ति चाहे संपन्न हो या अभावग्रस्त, सभी को जन्म से मृत्यु तक किसी न किसी विषम, विकट एवं कठिन समस्याओं से दो चार अवश्य होना पड़ता है। उस समय यही संबंध उसके काम आते हैं। वर्तमान तथाकथित प्रगतिशील समाज में उन्हीं रिश्तों का लगातार हास होता जा रहा है। जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की मानसिकता बीमार होती जा रही है। पहले समाज में रिश्ते पूरी संवेदनशीलता से निभाए जाते थे, जो आज मात्र औपचारिकता से केवल निपटाए जाते हैं। नतीजतन बाहरी तौर पर प्रसन्न दिखाई देने वाला इनसान भी अंदर से टूटा हुआ, बिखरा हुआ, एकाकीपन एवं असहायपन से जूझता हुआ जिंदगी जी रहा है। ऊपरी प्रसन्न मुखौटे के आवरण में बेबस व लाचार व्यक्तित्व लिए इनसान पलायनवादी मानसिकता से ग्रस्त मनोरोगी बनता जा रहा है। मन की व्यथित भावनाओं को छिपा कर रखना व दुविधापूर्ण जिंदगी जीना जैसे उसकी नियति बन गई है। जब स्वयं विष्णु भगवान सृष्टि के पालनहार ने त्रेतायुग में भगवान राम एवं द्वापर युग में भगवान कृष्णा के रूप में अवतार लेकर इनसानी जीवन जिया, तो पूरा जीवन कठिनाइयों व समस्याओं में गुजारा, तो बेचारे तुच्छ इनसान की बिसात ही क्या है।

ऊपर वाले ने इनसान के दुखों में शरीक होने के लिए, समस्याओं में सहायता करने के लिए उसे अंतरंग रिश्तों की जो नियामत बख्शी है, उसे स्वयं वर्तमान में इनसान ने ही धत्ता बताकर स्वयं को एकाकीपन व्यथित, विवश, बेबस जिंदगी के नरक की भट्टी में झोंक दिया है। तभी जब उसे आवश्यकता महसूस होती है, तो उसे कोई अपना दिखाई नहीं देता जिसके साथ वह मन हल्का कर सके, अंतत: वह स्वयं में कुंठित हो मानसिक रोगी बन जाता है। इस दशा का जिम्मेदार भी वह खुद है, जिसने अपने अहंकार, मनमानी, घमंड, स्वार्थ सरीखे कारणों से अपने को ही अपने से दूर कर दिया। पहले के समाज में जाति, धर्म, संप्रदाय, संपन्नता, अमीरी-गरीबी से ऊपर उठकर विशुद्ध मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत मानसिकता निहित जीवनशैली हुआ करती थी। खुशियां, त्योहार व उत्सव मिलजुल कर मनाए जाते थे। लगातार बढ़ते दांपत्य कोर्ट केस, संयुक्त परिवारों से अलगाव हेतु अलग होते एकाकी परिवार, मित्रों में बढ़ता दुराव, पड़ोसियों के बढ़ते झगड़े एवं बहन-भाइयों के जायदादी झगड़े इस अकाट्य सत्य को प्रमाणित करते हैं कि वो अंतरंग रिश्ते जो कभी अपनेपन से निभाए जाते थे, आज महज औपचारिकता मात्र संवेदनाहीनता से निपटाए ही जाते हैं।