पांच फीसदी से कम ‘गरीब’

भारत सरकार ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) का 2022-23 के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण का सारांश छापा है। औसतन भारतीय परिवार, उसके खर्च और ‘गरीबी’ पर यह महत्वपूर्ण आर्थिक डाटा है। नीति आयोग ने इसकी रपट जारी की है। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि देश की आबादी का 5 फीसदी से भी कम लोग, यानी 7.20 करोड़ भारतीय ही, ‘गरीब’ रह गए हैं। गरीबी का यह डाटा 2011-12 के बाद सामने आया है। एक ऐसा ही सर्वेक्षण 2017-18 में भी आया था। उसमें ‘गरीबी’ बढ़ती हुई दिख रही थी, लिहाजा मोदी सरकार ने वह रपट छिपा ली थी। तब सरकार के आर्थिक डाटा की खूब आलोचना हुई थी। ‘गरीबी’ की हकीकत पर कई सवाल भी उठाए गए थे, लिहाजा 11 साल के बाद यह सर्वेक्षण विधिवत सामने आया है, जिसमें अचानक ‘गरीब’ की 5 फीसदी से भी कम आबादी रह गई है। यह भी निष्कर्ष सामने आया है कि ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति माहवार खर्च 1441 रुपए है, जबकि शहरों में यही खर्च 2087 रुपए है। अब लोग गेहूं, चावल, दाल आदि अनाज पर कम खर्च करते हैं, जबकि पैकेटबंद नमकीन, चिप्स और फल आदि पर ज्यादा खर्च करते हैं। 2022-23 की रपट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में भोजन पर खर्च प्रति व्यक्ति माहवार खर्च का 46 फीसदी किया जाता है। यह खर्च 1999-00 में 59 फीसदी था। शहरों में यही औसतन खर्च 39 फीसदी है, जबकि 1999-00 में भोजन पर यही खर्च 48 फीसदी था। अब फ्रिज, टीवी, मोबाइल आदि पर खर्च 15 फीसदी बढ़ा है। रपट स्पष्ट करती है कि औसत आय बढ़ी है, लिहाजा खर्च भी बढ़ा है, लेकिन खर्च की प्रवृत्ति और रुझान बदल गए हैं। यह सर्वेक्षण खुलासा नहीं करता कि इस अवधि में स्वरोजगार, वेतन, मजदूरी, दिहाड़ी आदि में कितनी बढ़ोतरी हुई है? आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबोले इस आकलन को सभी के सामने प्रस्तुत करते रहे हैं कि देश में 20 करोड़ लोग गरीबी-रेखा के नीचे हैं। करीब 23 करोड़ लोग रोजाना 375 रुपए कमाने में भी असमर्थ हैं।

दत्तात्रेय के खुलासे को खारिज कैसे किया जा सकता है? गरीबी के विश्लेषण में भाजपा सरकार और आरएसएस नेता के बीच यह विरोधाभास क्यों है? सवाल यह भी है कि यदि देश में 7.20 करोड़ भारतीय ही ‘गरीब’ रह गए हैं, तो 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त अनाज क्यों बांटा जा रहा है? अभी तो 5 साल तक यह अनाज बांटा जाना है। बीते कुछ अंतराल से प्रधानमंत्री मोदी यह भी दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार ने 25 करोड़ लोगों को ‘गरीबी’ से बाहर निकाला है। ‘गरीबी’ के ये आंकड़े संदिग्ध लगते हैं कि न जाने किस आधार पर ‘गरीबी’ तय की गई है! क्या नीति आयोग ने ‘गरीबी’ की परिभाषा और मानदंड तय कर लिए हैं? लिहाजा उन्हें भी सार्वजनिक किया जाए। बहरहाल सर्वेक्षण में कहा गया है कि गांवों में अनाज पर मासिक खर्च 4.91 फीसदी किया जाता है, जबकि शहरों में यह खर्च 3.52 फीसदी है। ग्रामीण दाल पर मात्र 2.01 फीसदी और शहरी 1.39 फीसदी खर्च करते हैं। भोजन के अलावा ग्रामीण परिवार अन्य वस्तुओं पर 53 फीसदी खर्च करते हैं और शहरी 60 फीसदी खर्च करते हैं। दो जून रोटी का विकल्प विलासिता वाली चीजों ने ले लिया है।

ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति खर्च करीब 164 फीसदी बढ़ा है, जबकि शहरों में यह 146 फीसदी बढ़ गया है। मुद्रास्फीति को शामिल करके उपभोग ग्रामीण क्षेत्र में 3.1 फीसदी की बढ़ोतरी दर से बढ़ा है, जबकि शहरों में यह दर 2.7 फीसदी है। यानी गांवों में उपभोग का स्तर और गति शहरों से ज्यादा तेज है। इन 11 सालों में जीडीपी की औसत विकास दर 5.7 फीसदी रही है। भारत का उपभोग विकास देश के समस्त उत्पादन और विस्तार की तुलना में पीछे रहा है। नतीजतन किसानों सरीखे वर्गों में असंतोष देखा जा रहा है और राजनीतिक दल ‘रेवडिय़ां’ बांटने में जुटे हैं। क्या अब मान लिया जाए कि जिस गरीबी को अपने कार्यकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी समाप्त नहीं कर सकीं, क्या अब उसका सफाया हो रहा है? सबसे जरूरी यह है कि सरकार उस पैमाने को सार्वजनिक करे जिसके आधार पर गरीबी परिभाषित होती है।