एमएसपी प्रस्ताव खारिज

किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसमें दलहन, कपास, मक्की, उड़द और अरहर की फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का आश्वासन दिया गया था। फसलों की मात्रा की भी कोई सीमा तय नहीं की गई थी। कृषि मंत्री समेत तीन केंद्रीय मंत्रियों ने 100 फीसदी एमएसपी पर सरकारी खरीद का प्रस्ताव दिया था। किसानों की अस्वीकृति निराशाजनक और नकारात्मक है। चूंकि पंजाब के ज्यादातर किसान आंदोलित हैं और अब हरियाणा के कुछ किसान भी सुगबुगा रहे हैं, लिहाजा वे गेहूं और धान समेत 23 फसलों के एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं। दालें, मक्की, कपास ऐसी फसलें हैं, जिनमें गेहूं, धान, गन्ने की तुलना में पानी की कम खपत होती है। पंजाब में भूजल की स्थिति संकट में है। केंद्र सरकार ने यह प्रस्ताव फसलों के विविधीकरण के तहत दिया था और 5 साल के लिए अनुबंध करने को भी वह तैयार थी, लेकिन किसानों ने इसे ‘गुमराहपूर्ण’ करार दिया। किसानों के आरोप हैं कि एमएसपी की गारंटी पर अब भी केंद्र सरकार गंभीर नहीं है और वक्त गुजारने की कोशिश कर रही है। नतीजतन किसान संगठनों ने 21 फरवरी को ‘दिल्ली कूच’ का आह्वान नए सिरे से किया है। अब भाजपा नेताओं के घरों के बाहर धरने दिए जाएंगे और व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शन भी किए जाएंगे। पंजाब और हरियाणा ही नहीं, बल्कि मप्र और तेलंगाना के किसानों की भी शिकायत रही है कि उन्हें मक्की, दलहन, तेल-बीज, कपास आदि फसलों पर कोई खास प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। एमएसपी पर खरीद में भी कई विसंगतियां हैं। सरकार ने जो प्रस्ताव दिया था, वह पंजाब, हरियाणा के किसानों के लिए सटीक फॉर्मूला नहीं है, क्योंकि वे प्रस्तावित फसलें नगण्य ही पैदा करते हैं। मप्र, गुजरात, कर्नाटक, बंगाल आदि राज्यों के किसान प्रस्तावित फसलों की पैदावार अधिक करते हैं। इन फसलों की बिक्री के लिए सरकार के पास कोई निश्चित ‘दुकान’ भी नहीं है, लिहाजा नैफेड और कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया जैसी सरकारी एजेंसियों को खरीदी हुई फसलों को बाजार में ही बेचना पड़ता है। यदि कोई नुकसान होता है, तो उसे भारत सरकार को ही वहन करना पड़ता है। गौरतलब है कि जिन फसलों पर एमएसपी की व्यवस्था है, उनकी खेती में हिस्सेदारी करीब 28 फीसदी है, जबकि करीब 50 फीसदी किसान बागवानी, पशुपालन आदि में जुटे हैं।

हरी सब्जियों, फल, दूध आदि पर कोई एमएसपी नहीं है। एमएसपी के दायरे में आलू, प्याज, टमाटर भी नहीं हैं, जिनके किसान औने-पौने दाम मिलने के कारण प्रलाप करते रहे हैं या अपनी फसलों को सडक़ों पर फेंकते रहे हैं। क्या वे सभी किसान नहीं हैं? गौरतलब यह भी है कि एमएसपी वाली फसलों की विकास-दर मात्र 1.8 फीसदी है, जबकि बागवानी, पशुपालन, दुग्ध उत्पादन आदि की विकास-दर, बीते 20 सालों के दौरान, 5 से 8 फीसदी रही है। सरकार कृषि पर 5 लाख करोड़ रुपए की सबसिडी भी देती है। इसमें से 1.88 लाख करोड़ रुपए की सबसिडी सिर्फ खाद, बीज आदि पर दी जाती है। क्या यह आर्थिक बोझ भारत सरकार पर नहीं है? क्या परोक्ष रूप से यह राशि किसानों को नहीं मिल रही है? दरअसल जिन्हें एमएसपी की व्यवस्था नसीब नहीं है, उन्होंने आज तक किसी भी आंदोलन की हुंकार नहीं भरी है। अर्थव्यवस्था में उन किसानों का अधिक योगदान है। हमारे देश में भूमि का आवंटन और स्वामित्व भी काफी असमान रहा है। मात्र 7 फीसदी जमींदार टाइप किसानों के पास करीब 46 फीसदी कृषि-भूमि है, जबकि 80 फीसदी किसानों के पास 30 फीसदी कृषि-भूमि है। शेष देश की तुलना में पंजाब और हरियाणा के किसान ज्यादा सम्पन्न हैं। उनकी नियमित आमदनी भी अधिक है। बेशक किसानों की आय बढ़ाना और उन्हें कर्जमुक्त करना हमारा चिंतित सरोकार है, लेकिन एमएसपी से ऐसा संभव नहीं है। आय तभी बढ़ सकती है, जब प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। अमरीका, चीन, इंडोनेशिया, ब्राजील आदि देशों की तुलना में हमारी औसत उत्पादकता बहुत कम है। चीन के किसान की औसत सालाना आय 2-3 लाख रुपए है, जबकि भारतीय किसान आज भी 1.25 लाख रुपए सालाना मुश्किल से कमा पाता है। किसानों को तमाम पहलुओं पर विचार करना चाहिए।