अपनी प्रगति का पथ

श्रीराम शर्मा
आशा की जानी चाहिए कि नव सृजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनीषो, समय दानी धनी आदि प्रतिभावान अपनी- अपनी श्रद्धांजलि लेकर नवयुग के अभिनव सृजन में आगे बढ़ेगें और कहने लायक योगदान देंगे। इक्कीसवीं सदीं का उज्ज्वल भविष्य विनिर्मित करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक है और अनिवार्य भी। ‘उद्घरेदात्मनात्मानं’ अपना उद्धार आप करो। अपनी प्रगति का पथ स्वयं प्रशस्त करो। जो मांगना है, अपने जीवन देवता से मांगो। बाहर दिखने वाली हर वस्तु का उद्गम कंेद्र अपना ही अन्तरंग है। आत्म देव की साधना ही जीवन देवता की उपासना है। राम के कत्र्तव्य पालन में, भरत के त्याग-तप में, मीरा के प्रेम में, हरिश्चंद्र के सत्य व्रत में, दधीचि के दान में, कृष्ण के अनासक्ति योग में चरित्र की पूर्णता के दर्शन होते हैं। चरित्र जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। चरित्र ही जीवन रथ का सारथी है। उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है। चरित्र ही हमारे मूल्यांकन की कसौटी हो। चरित्रवान व्यक्तियों को प्रोत्साहित और महत्त्व दें।

प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम शांत और संतुलित मस्तिष्क द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं। संसार में मनुष्य ने अब तक जो कुछ भी उपलब्धियां प्राप्त की हैं, उनके मूल में धीर, गंभीर, शांत मस्तिष्क ही रहे हैं। कोई भी साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार, शिल्पी, यहां तक कि बढ़ई, लुहार, सफाई करने वाला श्रमिक तक अपने कार्य, तब तक भलीभांति नहीं कर सकते, जब तक उनकी मन: स्थिति शांत न हो। आशा आध्यात्मिक जीवन का शुभ आरंभ है। आशावादी व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा की सत्ता विराजमान देखता है। उसे सर्वत्र मंगलमय परमात्मा की मंगलदायक कृपा बरसती दिखाई देती है। सच्ची शांति, सुख और संतोष मनुष्य की निराशावादी प्रवृत्ति के कारण नहीं, अपने ऊपर अपनी शक्ति पर विश्वास करने से होता है। गृहस्थाश्रम की सफलता तीन बातों पर निर्भर करती है। पहला गृहस्थ जीवन के पूर्व की तैयारी, दूसरे पति-पत्नी के दांपत्य जीवन में आने का ध्येय, तीसरा गृहस्थ जीवन में एक दूसरे का व्यवहार और उनका कत्र्तव्य पालन।

तेजस्विता तपश्चर्या की उपलब्धि है, जो निजी जीवन में संयम, साधना और सामाजिक जीवन में परमार्थ परायणता के फलस्वरूप उद्भूत होती है। संयम अर्थात अनुशासन का, नीति मर्यादाओं का कठोरतापूर्वक परिपालन। आहार न केवल स्थूल दृष्टि से पौष्टिक, स्वल्प और सात्विक होना चाहिए, वरन उसके पीछे यथानुकूल उपार्जन और सद्भावनाओं का समावेश भी होना चाहिए। तभी वह अन्य मनुष्य के तीनों आवरणों को पोषित कर सकेगा और स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर को विकसित कर सकेगा। तभी वह शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वांगीण विकास कर सकेगा। इसलिए कभी हताश नहीं होना चाहिए।