जिंदगी बदलने की फरियाद

जब से जिंदगी से रुखसत लेने का समय करीब आता जा रहा है, हम एक ही बात बार-बार सोचने लगे हैं, कि क्या हमारी इस घडऩतख्ता जिंदगी और नामुक्कमल जिंदगी की नाकामयाबी के पीछे यह सच्चाई तो नहीं कि हम किसी भी क्षण जिंदगी के किसी भी आयाम में एक समझौतापरस्त टुकडख़ोर न बन सके? जी हां, जीवन में कामयाब होने के यही दो अचूक मंत्र हैं। पहला तो यह कि सबसे अच्छा लड़ाकू वह जो अपने से तगड़े को देख कर समझौता कर उसकी चरणवंदना कर ले, और अपने से कमजोर के सामने एक ऐसे पहाड़ पर खड़े होने का नजारा पेश करे कि जिसके नीचे कोई सीढ़ी भी नहीं। ऐसे पहाड़ पर वह हमेशा अकेला खड़े रहता है, और अपनी कल्पना में एक ऐसी भीड़ को अपना अनुसरण करते देखता है, उन पर अनुग्रह के फूल बरसाता रहता है। आशीर्वाद की भाषा के चंदोने तानता है, लेकिन अगर उसके ढोल की पोल खोल कोई छीछालेदर करने वाला सामने आ जाए, तो उसके मुखौटे का रंग बदल जाता है। वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन जाता है और झुक-झुक कर उसे ऐसी कोर्निश बजाता है कि वह दूसरा भूतपूर्व पहाड़ भी उससे लज्जित हो कर अपने अहं ब्रह्मास्मि को गलत अर्थ लगने लगता है। शब्द ‘कोर्निश’ का क्या अर्थ होता है, बन्धु। भाषा शून्य, बुद्धि वर्जित हमसे बार-बार पूछ लेते हैं। अब उनकी जिज्ञासा का समाधान हम कैसे करें? तब एक और शब्द ‘टुक्कडख़ोर’ कूद कर किसी मायूस खरगोश की तरह हमारे बीच आकर खड़ा हो जाता है। अपनी मासूमियत के पंजे रगड़ते हुए बता देता है कि बन्धु शेरों की दहाड़ का नहीं, जमाना खरगोशनुमा पुलकन का है, गिलहरी सी फुदकन का है। भूख और बेकारी चाहे कितनी बढ़ जाए, जर्द होते और मुरझाते फूल मुर्दा होती तितलियों के पंखों की तरह बार-बार चेतायें कि बेमौसमी बरसात के विदा होते बादलों के साथ आजकल इन्द्रधनुष नहीं खिलते। अकाल और बेकारी लौट-लौट कर तेरे दरवाजे पर दस्तक देती है और तू विकास दर के आंकड़ों की छलांग पर लौटती लहरों की बांसुरी बजाता है। इस बेसुरी होती दुनिया में संगीत की लहरों पर युग बदलने के क्रांतिनाद नहीं उभरते, टुकडख़ोरों की घिघियाहट पेश-पेश हो जाती है।

सुनो अलविदा कह गयी तलाकशुदा भूतपूर्व प्रेमिका की तरह, मौत के हरकारे महामारी का नया मुखौटा पहन कर तेरी जिंदगी में लौट आए हैं। राजधानी की सरहद पर किसान उसी तरह बैठे हैं, अपने फसलों के लिए एक निम्नतम मूल्य की गारंटी की आस लिए, और उधर अपने दया और हमदर्दी के नए पहाड़ से एक और मसीहा ने फरमा दिया, जो तेरा दर्द वह मेरा दर्द। देश मेरे कर रहित बजटों की ओर देखो, इसमें बेकार हाथों को फिर से काम देने की चिंता है, जिन्होंने अपने इलाकों को बेगाने इलाके से अलग कोष्ठकों में फिर बंद कर देने का प्रयास किया है। न्यायाधीश कहते हैं, अजी इन कोष्ठकों पर फिर से विचार कर लो, अपने इलाके के पचहत्तर प्रतिशत लोगों को इसमें बंद कर दोगे, तो केवल पच्चीस प्रतिशत को खुला छोड़ पूरे देश को डिजीटल कैसे बनाओगे? मंगल ग्रह पर पहुंच कर नए ख्वाबों की बस्ती कैसे बसाओगे? लेकिन बन्धु, मंगल ग्रह तक जाने की आवश्यकता क्या है? वहां अपनी धरती जैसा जीवन है या नहीं, इसकी खोज करने चले हो। अरे पहले अपनी धरती के मरते-जीते लोगों को नयी सांसें तो बख्श दो। देखो, इन्हें अपने लिए जिंदा क्षणों के टूटते सपनों की सौगात इन्हें मिली। सपने कह लो या फलसफे कह लो, एक ही बात है। आओ, इनके लिए बाबूडम के प्रतीक सरकारीकरण को धत्ता बता कर निजीकरण के स्वागत के लिए तोरणद्वार सजा दो। जितना निजीकरण बढ़ेगा उतना ही उसके खरबपति मसीहा अपने ऊंचे होते पहाड़ों से तुम्हारी ओर हमदर्दी से झांक लेंगे।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com