समाज से वोट बैंक चुनती राजनीति

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

सभ्य समाज के समानान्तर भावार्थ वाले शब्द हैं संगठित समूह, सहयोग, सौहार्द, सहायता से ओत-प्रोत, सकारात्मक सोच वाली सामुदायिक भावना वाले मानव समूह, जिनकी परस्पर सांझाी सद्भावना ने ही सभ्य समाज की सहज संरचना स्थापित की है। समाज की संरचना के कालखंड से लेकर वर्तमान तक समाज का पोषण भी किया है। जिसमें समाहित ताने बाने ने ही समाज को एकरसता में बांध रखा है। बेशक समय के साथ-साथ सामाजिक संस्कार, परंपरा, संस्कृति, जीवनशैली अवश्य बदलती रही है, परंतु मूलभूत विशेषताओं ने स्वयं को स्थापित कर समाज की सामुदायिक भावना की सहजता एवं सद्भावना को कायम रखा है। तभी समाज निरंतर पोषित होता आया है। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि वोट बैंक के वर्तमान राजनीतिक परिवेश व परिदृश्य में अमूलचूल बदलाव आया है। आज की घिनौनी राजनीति ने समूह समाज का ताना बाना खंड-खंड कर वो कुठाराघात किया है, जिसकी क्षतिपूर्ति अत्यंत कठिन है।

वोट बैंक की कुत्सित राजनीति से ग्रस्त सत्तालोलुप, अनैतिक, अमर्यादित, आचरणहीन, निकृष्ट व अधम राजनेताओं ने न केवल सामाजिक ताना-बाना नष्ट किया है, बल्कि वतन फरामोशी की सीमा भी पार कर दी है। पूर्व कालखंड में भी राजनैतिक चुनौतियां होती थी, परस्पर चुनावी दंगल भी होते थे फिर भी सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के आचरण में एक नैतिक मर्यादा व गरिमा बनी रहती थी। कुछ भी ऊल जलूल बोलने से संकोच किया जाता था। मानसिक संकीणर्ता इतने निम्नतम स्तर की नहीं होती थी। गलत दोषारोपण करने में भी सभ्य एवं सही शब्दावली का प्रयोग किया जाता था। व्यक्तिगत चरित्रहनन तो कदापि न होता था, मानहानि के मुकदमें भी कभी कभार ही देखने सुनने को मिलते थे।

लफ्जों को देखभाल स्वस्थ चिंतन उपरांत ही स्वयं से जुदा किया जाता था। जिसके विपरीत वर्तमान की भाषण व संवाद शैली ने तो सभ्य सीमा का ही अतिक्रमण कर रखा है। यूं लगता है जैसे भारत जैसे विशाल राष्ट्र को लोकतंत्र सरकार रास ही नहीं आई है, पूरे
विश्व के समक्ष अपने देश का मजाक व तमाशा ही बन रहा है। समाज से वोट बैंक चुनती रानीति ने अच्छे भले समाज को धर्मों, पंथों, जातियों में इस कद्र विभाजित कर दिया है, जो पहले कभी देखने में नहीं आया था चुनावी दंगल उपरांत समाज में पनपी द्वेष भावना बद से बदतर होती हिसंक परिणामों में परिवर्तित हो समाज को टुकड़ों में बांट रही है।

पहले के शांतिपूर्वक होते प्रदर्शन हिसंक व विनाशकारी कत्लोगारत का रूप अख्तियार कर रहे हैं। सत्तापक्ष व विपक्ष परस्पर हार जीत को हासिल करने के लिए किसी सीमा तक भी जाकर समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित करके देश की सुरक्षा, सौहार्द, सद्भाव व अस्मिता से खिलवाड़ कर रहे हैं। जनमानस व मतदाता भी अब इस राजनैतिक निकृष्टता से घृणा कर चुनावों से ही उदासीन होने लगे हैं, नोटा के मतों की बढ़ती गिनती इसका प्रमाण है। राजनेताओं की चुनावी आग में व्यक्ति व समाज के हितों को स्वाहा कर केवल खुद का वोट बैंक एवं बैंक बैलेंस ही बढ़ाया जा रहा है।

राजनीति का पूर्णतया आर्थिकीकरण एवं व्यावसायीकरण हो गया है। आम आदमी के हित व सामाजिक सदभाव जाएं भाड़ में देशहित व सुरक्षा लगे दाव पर, तो लगनेे दो बस नेताओं को तो समाज से वोट बैंक चुनने से ही मतलब है। समय आ गया है कि मतदाता किसी नेता को भी मत न दें चुनावों का बहिष्कार करें ताकि वर्तमान की भ्रष्ट चुनावी व्यवस्था अपनी मौत आप मर जाए और नई शासकीय व्यवस्थाओं को अन्वेषित किया जाए।