नई जागृति की तलाश

बूढ़ा हो जाने के बाद आदमी कितनी सफाई से झूठ को सच बना कर बोल लेता है। लगता है इतना बूढ़ा हो गया है। सच ही कह रहा होगा। हो सकता है वास्तव में इसने जीवन में इतनी ही उपलब्धियां हासिल कर ली हों! इसका जीवन एक शाहकार बन कर गुजरा हो। वास्तव में क्यों न इसकी बात मान ही लो कि दुनिया में सबसे अकलमंद गदहा होता है, और सबसे सुखी जीव सुअर है। जो बात एक बूढ़े होते आदमी के लिए सही है, वही बात एक बूढ़े हो गए देश के लिए भी सही है। एक झूठ को दस बार सच कह कह दुहरा दो, तो वह वास्तव में सच ही लगने लगता है। हम अपने देश की रगों में दौड़ते उद्दाम यौवन की कल्पना करते हैं, तो लगता है वास्तव में देश बुढ़ापा त्याग फिर से जवान हो उठा। काव्य पंक्तियां क्यों दुहराएं कि ‘बूढ़े भारत की रगों में फिर से आई नई जवानी थी।’ इसी से लगता है सैकड़ों बरस पुराने भारत के जीर्ण-शीर्ण मूल्य खंडित हो गए। नए मूल्यों ने, नए बदलाव ने फिर जन्म ले लिया। देश चिरयुवा हो उठा चिल्ला-चिल्ला कर उठाए गए नारे एक नया सच बन कर उभर आए। तुम कहते हो भूख, बेकारी और महंगाई बढ़ गई। अरे महसूस तो करो, तुम्हारी भूख मिट गई। देश खुल गया है, बेकार हाथों को काम मिल गया। और महंगाई की दिक्कत की बात न करना। आर्थिक विकास दर के गिर कर ऋणात्मक होने की बात न करना, सकल घरेलू उत्पादन में रिकार्ड कमी आई, इसकी बात न करना। मौन रहो। तालियां बजाना सीखो। हमने बता तो दिया है कि कोरोना का भय कब का खत्म हो गया है। देश की आर्थिक गतिविधियां तेजी से चल रही हैं।

महाचुनावों से पहले-पहले अब आर्थिक विकास दर भी बढ़ेगी, सकल घरेलू उत्पादन की कमी दूर हो जाएगी। बस थोड़ा सा धीरज रखने का इंतजार करने की जरूरत है, सब सही हो जाएगा, अच्छे दिन लौट आएंगे। बस यही तो तुम इस देश के लोग कर नहीं पाते। प्रशासन को भला-बुरा कहने लगते हो। भाई जान, बस तीन बरस की तो बात है। इसके बाद महाचुनाव होंगे। हमारे भाल फिर से तिलक लगा देना। ऐसी-वैसी महामारियों को तो तम हम यूं ही पस्त कर देंगे। अभी तुम नौकरियों के पीछे भागते हो, फिर नौकरियां हाथ बांध कर तुम्हारे पीछे-पीछे चली आएंगी। हमने अच्छे दिन लाने का वायदा कर रखा है। ये अवश्य मिलेंगे, बस सत्ता की गद्दी पर जमने का हमें स्थायी मौका दे दो, इस देश के महाभ्रष्टाचारी और रिश्वतखोर होने का कलंक हटा कर दम लेंगे। अभी भ्रष्टाचार सूचकांकों ने बताया कि यह नहीं मिटा, बल्कि भ्रष्ट आचरण का रोग कुछ और गंभीर हो गया। चिंता न करो, इसे मिटाने के हमारे गम्भीर प्रयास जारी हैं। हर बड़ी और अच्छी चीज घटने में वक्त लगता है, हमें और हमारे कुनबे को वक्त दो, और तुम हम पर कुनबापरस्ती के आरोप न लगाओ। अब देखो न तुम लोग पैट्रोल, डीजल और ईंधन गैस की आकाश छूती कीमतों की प्रताडऩा का विरोध कर रहे थे, वो भी कम हो तो गईं। दुनिया भर में इसकी कीमतें बढ़ रही हैं, फिर कम्पनियों के प्रॉफिट मारजिन और केन्द्र एवं राज्यों के कर स्रोतों को बना कर रखना भी जरूरी है। आगे चलकर इसका भी विकल्प ला रहे हैं, विद्युत कारों की भरमार कर देंगे, जो पैट्रोल और डीजल कारों की जगह लेंगी। मांग घटेगी, सब सस्ता हो जाएगा। समझ लो समस्याओं का समाधान विकल्प के अलादीन का चिराग करता है। अब किसानों की आय बढ़ाने के लिए भी तो निजी खुली मंडियों का विकल्प दिया ही है। अजी असल काम तो नई समझ, नव जागरण पैदा करने की है। अच्छे दिन तो बाद में आते ही रहेंगे।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com