संदेशखाली की दरिंदगी

पश्चिम बंगाल के संदेशखाली इलाके के हालात को देख-सुन कर ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें पहले ही देखा, भोगा और अनुभव किया है। संदेशखाली पर जितनी रपटें और विश्लेषण सामने आए हैं, उनके मद्देनजर आश्चर्य होता है कि 2011 से वहां ‘दरिंदों’ के अत्याचार, यौन उत्पीडऩ और भूमि पर जबरन कब्जों के सिलसिले जारी रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री उन्हें झूठ करार दे रही हैं। उन्होंने विधानसभा में कहा है कि संदेशखाली में आरएसएस का अड्डा है और वही औरतों को उकसा और बरगला रहा है। यदि संघ किन्हीं आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त है, तो मुख्यमंत्री और राज्य पुलिस ने उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? आश्चर्य यह भी है कि संदेशखाली की औरतों पर सालों से अत्याचार, अनाचार किए जा रहे थे, लेकिन राज्यपाल, अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग और भाजपा संसदीय प्रतिनिधिमंडल आदि की नींद एकसाथ 2024 में खुली है! अब प्रधानमंत्री मोदी भी 7 मार्च को, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर, बंगाल जा रहे हैं, जहां वह महिलाओं की ही जनसभा को संबोधित करेंगे। ये तमाम अभियान ‘राजनीतिक’ लगते हैं, क्योंकि सालों तक सभी खामोश और निष्क्रिय थे, लेकिन आज बंगाल में ‘राष्ट्रपति शासन’ तक की आवाजें मुखर हुई हैं। यहां तक कि जमीनी रपटें सामने आई हैं कि संदेशखाली की औरतों को तृणमूल कांग्रेस के दफ्तर में बुलाया जाता था और रात भर उन्हें ‘मनोरंजन’ के लिए विवश किया जाता था। ऐसे कबूलनामे औरतों ने कैमरे के सामने कहे हैं, हालांकि चेहरे ढक कर वे बोली हैं, क्योंकि उन्हें ‘अत्याचारी राक्षसों’ का खौफ है। दुर्भाग्य और विडंबना यह है कि शोषित और पीडि़त औरतों को, खुद को, तृणमूल की समर्थक और वोटर भी कहना पड़ रहा है। औरतों की पारिवारिक बची-खुची जमीनें भी छीन ली गई हैं और अब उन पर तृणमूल कांग्रेस के ‘राजनीतिक गुंडों’ के अवैध कब्जे हैं। अत्याचार और सामूहिक दुष्कर्म के यथार्थ कई पक्षों ने सामने रखे हैं, लिहाजा उन्हें खारिज करना आसान नहीं है। कमोबेश संवैधानिक पदासीन चेहरों को झूठा करार नहीं दिया जा सकता।

उनके भी सामाजिक दायित्व हैं। अब मामला सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है। आज सुनवाई में उसका फैसला क्या होगा, उसका विश्लेषण बाद में करेंगे। हमने कहा था कि ममता बनर्जी ने ऐसे हालात पहले देख और अनुभव कर रखे हैं। इस संदर्भ में सिंदुर और नंदीग्राम के आंदोलन याद आते हैं, जो टाटा मोटर्स के प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ थे। तब ममता विपक्ष में थीं और आंदोलन का नेतृत्व कर रही थीं। तत्कालीन वाममोर्चा सरकार और पार्टी समूह ने ममता पर जो हिंसक और जानलेवा हमले किए थे, उन्होंने बंगाल में ‘वाम’ के अंत की शुरुआत कर दी थी। आज 2011 से बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की सत्ता है। ममता भी ‘वाम’ की तरह घमंडी और एकाधिकारवादी हैं। संदेशखाली में जो विरोध-प्रदर्शन उभरे हैं, उनमें शाहजहां शेख, शिबू हाजरा और उत्तम सरदार सरीखे तृणमूल गुंडों की गिरफ्तारी की मांग गूंज रही है। शेख तब से ‘भगोड़ा’ है, जब उसके घर पर प्रवर्तन निदेशालय की टीम ने छापा मारा था और हिंसक भीड़ ने जांच अधिकारियों को ही घायल कर दिया था। क्या यह संभव हो सकता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जानकारी ही न हो कि उनका ‘सिंडिकेट’ कहां है? ममता-राज के दौरान तृणमूल के भीतर ही ऐसा सिंडिकेट बना दिया गया है, जो ज्यादातर हिंदू आबादी पर ही दरिंदगी दिखाते हैं। पुरुषों को जान से मार देने की धमकियां भी देते हैं। 2021 के विधानसभा चुनाव के दौरान इसी सिंडिकेट ने भाजपा के खिलाफ 273 घटनाएं की थीं। कई कार्यकर्ताओं को भी मार दिया गया था। यह गुंडई पंचायत चुनावों में सरेआम कहर ढहाती रही है। क्या एक महिला मुख्यमंत्री का शासन ऐसा भी हो सकता है कि दरिंदे खुलेआम हत्याएं और अत्याचार कर सकें? यह सवाल जरूरी है, क्योंकि हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं। बंगाल की पुलिस भी सिंडिकेट का ही संरक्षण करती है, लिहाजा शाहजहां का सुराग तक नहीं लग पाया है कि आखिर महीनों से वह कहां फरार है?