राष्ट्रीय एकता के लिए वीर सावरकर का दृष्टिकोण

वीर शब्द का उल्लेख 1923 में श्री वैशम्पायन की एक कविता में विनायक दामोदर सावरकर के लिए किया गया था। उसी वर्ष श्री राजवाड़े की एक अन्य कविता में भी उन्हें वीर कहा गया। वीर सावरकर जी महान स्वतंत्रता सेनानी थे। अंग्रेज उनसे सर्वाधिक भयभीत रहते थे…

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में वीर सावरकर ने अपने बहुमुखी योगदान से राष्ट्र के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी। हिंदुत्व की अवधारणा को व्यक्त करने से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिंद सेना में उनकी भूमिका तक, सावरकर का जीवन और विचारधारा राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन पर चर्चाओं को प्रेरित और उत्तेजित करते रहे हैं। सावरकर ने हिंदुत्व को भारत के इतिहास में विदेशी हमलों, उपनिवेशवाद और धार्मिक रूपांतरणों से उत्पन्न चुनौतियों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा। उन्होंने हिंदुओं को अपनी सांस्कृतिक पहचान पर जोर देने और सांस्कृतिक एकरूपता या हाशिए पर धकेलने के प्रयासों का विरोध करने की आवश्यकता पर जोर दिया। सावरकर के हिंदुत्व ने हिंदुओं के बीच गर्व और आत्मविश्वास पैदा करने की कोशिश की, जिससे उन्हें अपने जीवन के तरीके के लिए आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना करने के लिए सशक्त बनाया गया। ‘विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।’ वैसे तो रामचरितमानस की यह चौपाई तब की है जब लंका पर चढ़ाई करने जा रहे भगवान राम समुद्र से लंका जाने के लिए मार्ग देने का आग्रह कर रहे थे। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की परिस्थिति में यह नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के प्रेरणास्रोत स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर इतिहास के सचेत अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि युद्ध के बिना स्वाधीनता संभव नहीं पर बखूबी फिट बैठती है।

स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के प्रेरणास्रोत थे। उन्होंने रण की संकल्पना का ब्लूप्रिंट भी तैयार किया। बाद में इसी के आधार पर आजाद हिंद फौज का गठन हुआ। जब हम आजाद हिंद फौज की चर्चा करते हैं तो बात नेताजी सुभाषचंद्र बोस से आरंभ होकर रासबिहारी बोस तक आकर रुक जाती है। इस सेना के निर्माण में जिनकी बुनियादी भूमिका रही, कृतिशील सहयोग रहा, उन वीर सावरकर को हम सहसा भूल जाते हैं। उनका रोम-रोम राष्ट्र को समर्पित था। वे अखंड भारत के पैरोकार व पक्षधर थे। उन्होंने अपनी प्रखर मेधा शक्ति, तार्किक-तथ्यात्मक विवेचना के बल पर 1857 के विद्रोह को ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ की संज्ञा दिलवाई। उनके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी नागरिकों को समान होना चाहिए। न किसी की उपेक्षा, न किसी को विशेषाधिकार। जो भी भारतवर्ष को अपनी पुण्यभूमि-पितृभूमि मानता हो, वह भारतवासी है। संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन में सावरकर जैसी प्रखरता, तार्किकता एवं तेजस्विता अन्यत्र कम ही दिखाई पड़ती है। लोकमान्य तिलक के प्रयासों से उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली और वे वकालत की पढ़ाई के लिए भारत से लंदन गए। लंदन में भी उन्होंने फ्री इंडिया सोसाइटी का गठन कर संपूर्ण भारतवर्ष से अध्ययन के लिए वहां पहुंचने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के बीच भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयास जारी रखा।

ब्रिटिश दस्तावेजों को खंगाल उन्होंने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक महत्त्वपूर्ण एवं शोधपरक पुस्तक लिखी। यह दुनिया की पहली ऐसी पुस्तक थी जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया। कुछ राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनके माफीनामे के रूप में प्रचारित कर उनकी छवि को चोट पहुंचाने की चेष्टा की। सत्य कुछ भिन्न एवं इतर होने के बावजूद, राजनीतिक क्षेत्र में आरोप लगाओ और भाग जाओ की प्रवृत्ति प्रचलित रही है। उसके लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने का आदर्श कोई सामने नहीं रखता। क्या उन आरोपों को तर्कों एवं तथ्यों की कसौटी पर नहीं कसा जाना चाहिए? वीर सावरकर के विचारों के अनुसार हिंदुत्व का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति जो सिन्धु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है। सावरकर सभी भारतीय धर्मों को शब्द ‘हिन्दुत्व’ में शामिल करते हैं तथा हिन्दू राष्ट्र का अपना दृष्टिकोण पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले अखण्ड भारत के रूप में प्रस्तुत करते हैं। भारतीय राष्ट्रवादी इतिहास में स्वातंत्र्यवीर सावरकर पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग की। वे भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम बताते हुए 1907 में लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। 1899 में, जब वे केवल 16 वर्ष के थे, सावरकर ने मित्र मेला नामक एक समूह का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत की पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था। बाद में समूह का नाम बदलकर अभिनव भारत कर दिया गया। 1906 में सावरकर लंदन चले गए और वहां भी अपना मिशन जारी रखा। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की आलोचना की और हिंदुओं से युद्ध प्रयासों में सक्रिय रहने और सरकार की अवज्ञा न करने को कहा। उन्होंने हिंदुओं से युद्ध की कला सीखने के लिए सशस्त्र बलों में भर्ती होने का भी आग्रह किया।

अगर दो टूक कहा जाए तो सावरकर ने कभी भी अंग्रेजों से माफी नहीं मांगी थी। जिस व्यक्ति ने दस साल सेलुलर जेल की अमानवीय यातनाएं सही हों, उसके विषय में ‘माफीनामा’ या ‘दया याचिका’ की बात करना आश्चर्यजनक लगता है। वीर शब्द का उल्लेख 1923 में श्री वैशम्पायन की एक कविता में विनायक दामोदर सावरकर के लिए किया गया था। उसी वर्ष श्री राजवाड़े की एक अन्य कविता में भी उन्हें वीर कहा गया। वीर सावरकर जी महान स्वतंत्रता सेनानी थे। अंग्रेज उनसे सर्वाधिक भयभीत एवं आशंकित रहते थे। इसका प्रमाण उन्हें मिली दो-दो आजीवन कारावास की सजा थी। महापुरुष कभी मरते नहीं। वे समाज और राष्ट्र की स्मृतियों, प्रेरणाओं, आचरणों और आदर्शों में सदैव जिंदा रहते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने उनके निधन को राष्ट्र की अपूर्णीय क्षति बताया था। उन्होंने वर्ष 1970 में वीर सावरकर के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। 28 मई 1883 को जन्मे सावरकर का निधन 26 फरवरी 1966 को हुआ था। राष्ट्रीय एकता, आत्मनिर्भरता तथा सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए उनके योगदान को याद रखा जाएगा।

डा. अमरीक सिंह ठाकुर

शिक्षाविद