क्योंकि भरोसा नहीं है

देश-प्रदेश की तस्वीर में हम चंद नेताओं पर अपनी तकदीर का फैसला करना चाहते हैं और यही हमारी लोकतांत्रिक आस्था के स्वरूप को निर्धारित कर रहा है। सवाल जनता के विश्वास से परे हालात पर टिके हैं, इसलिए राजनीतिक सर्कस में भी हम प्रतिभा देखने की गुस्ताखी कर बैठते हैं। जनता राष्ट्रीय स्तर से हिमाचल तक केवल चलाई जा रही है और उम्मीदों तथा संभावनाओं के प्रश्न चुनाव दर चुनाव आगे सरकाए जा रहे हैं। ऐसे में जनता या अपने मतदान के भरोसे पर देश की सुनहरी तस्वीर के प्रति आशावान है या विकल्पों की कमी उसे मजबूरीवश आगे धकेल रही है। इस बीच दिव्य हिमाचल के साप्ताहिक प्रश्न के जवाब में अगर यथार्थ को कबूल करें तो 72 प्रतिशत जनता को अब राज्य के नेताओं पर भरोसा नहीं है। हमने पूछा था कि जनता को हिमाचल के नेताओं पर कितना भरोसा है और जवाब से निकला दबाव बता रहा है कि कहीं विश्वसनीयता का अभाव दर्ज है, फिर भी 25 प्रतिशत लोगों को अपने नेताओं पर भरोसा है तो उन्हें सलाम। यह उस राज्य की जनता का मत है जो अभी तक भोले-भाले लोगों के लिए जानी जाती है। यह उस प्रदेश की गणना है जहां जनादेश के फलक पर सरकारों को हर बार बदलने की परंपरा दिखाई देती है। यहां का मतदाता बेहद जागरूक समझा जाता है, फिर भी उसके भरोसे के अनुरूप प्रतिनिधि सामने नहीं आ रहे हैं, तो कारण यहां के सरोकारों तक जाता है। हम चुनाव में कूदने वालों को अलग नजरिए से देख रहे हैं या समाज के भीतर भी भरोसे की ईजाद कम हो गई।

राजनीति की सीढिय़ां और पीढिय़ां इसके लिए दोषी मान भी ली जाएं, मगर उस जनता का क्या करें जो पंचायत से लोकसभा तक अपने जनप्रतिनिधि से केवल यही आशा करती है कि हर मत का कुछ तो दाम, कुछ तो ईनाम मिले। मर्ज हमने खुद पैदा किया और अब खुद के चुने हुए नेताओं पर भरोसा नहीं। हम नेताओं से चुनावी जीत का हद से ज्यादा भुगतान चाहते हैं, इसलिए सरकारों के गठन में गारंटियों या रेवडिय़ों का चलन इस कद्र सामने आ रहा है कि गारंटी अब सत्ता प्राप्ति का मोलतोल है। अगर हिमाचल का मतदान मुफ्त के तीन सौ यूनिट बिजली पर फिदा हो जाए या महिलाओं के नाम पर पंद्रह सौ रुपए प्रति माह के नाम पर सौदेबाजी कर ले, तो विश्वसनीयता के लिए आखिर कब तक नए वादे बिकते रहेंगे। जनता के अपने पैमाने हैं और जब हम देखते हैं कि हर चुनाव का दहेज चुकाते चुकाते प्रदेश अति कर्जदार हो रहा है, तो किस आधार पर कुशल नेतृत्व पर भरोसा करें। आखिर सरकारों की बनावट और सजावट में नेताओं की काबिलीयत क्यों चौराहों पर नीलाम होने लगी है। चालीस विधायकों के बलबूते कांग्रेस की सरकार विपक्षी भाजपा की संख्या से कहीं अधिक सशक्त थी, लेकिन राज्यसभा चुनाव ने कांग्रेस का कद, नेताओं की भद पिटवा दी। ऐसे में ठगा कौन गया।

जनता का भरोसा या राज्यसभा का चुनाव। अगर कांग्रेस जीत भी जाती तो हिमाचल को ऐसा सांसद मिलता जिसका ताल्लुक प्रदेश से ढूंढ पाना मुश्किल हो जाता। कुछ ऐसा ही आनंद शर्मा को राज्यसभा में भेजकर हिमाचल की जनता का भरोसा टूटता रहा होगा। हम छह विधानसभा क्षेत्रों की जनता से पूछेंगे तो कहीं न कहीं विधायकों के कारण भरोसा टूटता हुआ नजर आएगा, तो कहीं कांग्रेस के कारण उस भरोसे पर भी दाग लगे होंगे जो सत्ता में नेता का चेहरा देखना चाहते होंगे। नेताओं पर घटते जनता के विश्वास की नकारात्मकता अगर बढ़ती गई, तो राज्य में राजनीति की अस्थिरता भयानक होती जाएगी। आज भी कुछ ऐसे विधायक सामने आ रहे हैं जो जमीनी नेता नहीं, पैसे के दम पर राजनीति का एनजीओ करण करके मतदान को बरगला रहे हैं। अगर जनता के चयन में शर्तें न होतीं, तो स्थानीय निकायों में तो कम से कम अच्छे चेहरे आते। विडंबना यह है कि नगर निगमों तक के लिए ऐसे पार्षद चुने जा रहे हैं, जो सिर्फ नेतागिरी की मांद में शिकार करके राजनीति के चरित्र को ही नहीं, मतदाता की आशा का भी स्तर नीचे गिरा रहे हैं। असल में सामाजिक दृष्टि को कैदी बनाकार ही नेताओं की ताकत परवान चढ़ रही है।