शव संवाद-33

बुद्धिजीवी पहले जुबान का अधिकतम प्रयोग कुछ कहने के लिए करता था। उसे बातों-बातों में स्वाद आता था, हालांकि खुद हमेशा कड़वी बात ही करता था, लेकिन जैसे ही बुद्धि ने उसे कमाना सिखाया, वह जीभ पर खाने का स्वाद भी चखने लगा। आश्चर्य यह कि बुद्धिजीवी अब महंगाई के स्वाद का आदी हो गया है, बल्कि उसने बाजार के विपरीत अपना स्वाद विकसित कर लिया है। यानी टमाटर वह तब खाता है, जब किसान इसे खेत से बाहर निकालकर फेंक रहा होता है। आलू तब खाता है जब किसान इसे खेत में ही सडऩे के लिए दबा रहा होता है। नासिक की बारिश उसे प्याज के काबिल बनाती है या पंजाब के खेत की लाचारी उसे खाने की प्लेट की जब तरकारी बनती है, तो वह देश के लिए खाता है। वैसे बुद्धिजीवी खाता ही कहां है। वह तो अब लोगों को खाते हुए देखता है, चुपचाप। उसने आजादी के बाद यहां तक देखा कि लोग चारा तक खा गए। कमाल की पाचन शक्ति है। चोरी की बिजली तक खा जाते हैं। कितना कुतरा जाता है सरकारी खर्च का रुपया, यह देख-देख कर बुद्धिजीवी केवल शर्मिंदा है। उसे शर्मिंदगी की बीमारी है जो उसे न बोलने देती और न ही वह अपने पेट की जुबान को पढ़ पाता है। उसने नेताओं को दिवाली मिलन और ईद मिलन मनाते देखा, लेकिन वह समझ नहीं पाया कि जो जीभ ऐसी पार्टियों में चुपचाप सारे पकवान चट कर जाती, वही बाहर निकलकर एक-दूसरे के खिलाफ कैसे आग उगल देती है। स्वाद तो उस चूल्हे की रोटी का भी रहा होगा, जो दंगों में मरने वालों की वापसी का इंतजार करती रही। जिन्होंने जिंदा लोग जला दिए, उन्हें आराम से नॉन वेज बिरयानी खाते देख बुद्धिजीवी विचलित हुआ। शहर में दंगों के बाद अमन की अपील करते पुलिस प्रशासन ने उसे गुस्से में देखकर पकड़ लिया। बुद्धिजीवी पकड़ा गया, क्योंकि पुलिस की सही पकड़ में एक वही तो आ सकता था।

वह दंगों को लेकर क्रोधित था, इसलिए भी पकड़ा गया। पुलिस ने खाने और कपड़ों के आधार पर पहले से कई लोग पकड़ रखे थे। कुछ खाते हुए और कुछ भूखे पकड़ रखे थे। कुछ पूरे कपड़ों के साथ और कुछ फटे हुए कपड़ों के साथ भी पकड़े हुए थे। बुद्धिजीवी को अपने पकड़े जाने के बजाय शहर में बचे हुए निर्दोषों के पकड़े जाने का अफसोस था, इसलिए उसने पुलिस से कहा, ‘ये दंगई हो ही नहीं सकते। ये तो दंगों से बचे हुए वे भारतीय हैं, जो बार-बार पकड़े जा रहे हैं।’ पुलिस अधिकारी अब तक निर्णायक हो चुका था। उसके सामने एक साबुत बुद्धिजीवी उसके काम में टांग लड़ा रहा था, लिहाजा उसने अपनी टांग चला दी। पुलिस की मार से वह भी संभावित दंगई हो चुका था, फिर भी वहां भूख का सवाल पैदा हुआ तो बुद्धिजीवी से कहा गया कि वह उनके लिए खाना उपलब्ध करा दे तो बच जाएगा। शहर के लगभग जल चुके रेस्तराओं के बर्तनों में बुद्धिजीवी को जांच से बचने के लिए खाना चाहिए था। अंतत: उसे एक ऐसा चूल्हा मिल गया जो दंगे की आग के बावजूद जला नहीं था। उसने वहां आधी पकी बिरयानी का पतीला कंधे पर रखा, तो लगा कि वह एक पूरी तरह पकी हुई लाश ढो रहा है। पहले उसका मन किया कि दंगे से बची बिरयानी को शमशानघाट छोड़ आए, लेकिन अब तक उसे आभास हो गया था कि दंगों की जांच भी किसी मरघट से कम नहीं होती। बिरयानी में उसे कई शवों की आंच महसूस हो रही थी, लेकिन जांच अधिकारियों ने बाहर निर्दोष लोगों में दंगों के सबूत होने के सुकून में पूरा पतीला चाट डाला। उस दिन बुद्धिजीवी को विश्वास हो गया कि दंगों से अब देश में सिर्फ शमशानघाट ही डरता है।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक