हड़ताल से रैगिंग तक डाक्टर

या तो यहां नक्शा बड़ा था, या हमने उसे पढ़ा नहीं। हिमाचल में जो डाक्टर बन गए, वे हड़ताल के सुपुर्द हैं और जो बन रहे हैं, उनकी गलियों में कीचड़ भरा है। शुरू डाक्टरों की हड़ताल से करें या नाहन मेडिकल कालेज के ब्लैक बोर्ड पर रैगिंग का पाठ पढ़ें। दोनों ही परिस्थितियों में गुणात्मक दृष्टि से ये उदाहरण असहज करते हैं। नाहन के मेडिकल कालेज ने ऐसे प्रशिक्षु डाक्टर बना दिए जिन्होंने गंभीर पाठ्यक्रम से रैगिंग का विषय चुरा लिया। जूनियर डाक्टरों के साथ व्यावहारिक तौर पर जो हुआ, उसके कारण भले ही नौ प्रशिक्षु डाक्टरों पर त्वरित कार्रवाई हुई, लेकिन सवाल यह कि हम काचरू कांड के बाद भी शिक्षण संस्थानों को इस तरह की बेहूदगी से सुरक्षित नहीं रख पाए। इसके कारणों को समझने के लिए जांच केवल घटनाक्रम पर अटक जाती है, जबकि उन फैसलों पर तवज्जो देनी चाहिए जो सत्ता के दम पर संस्थानों और सियासी चबूतरों में अंतर नहीं समझती। नाहन मेडिकल कालेज का निर्माण और अस्तित्व दोनों ही शहर की तंग गलियों में फंसे हैं। जहां शायद एक बेहतरीन अस्पताल भी अपने पांव पसारने से गुरेज करता, वहां मेडिकल कालेज की दीवारें अपने ही अस्तित्व से द्वंद्व कर रही हैं। यह राजनीतिक सोच की दुर्घटना क्यों न मानी जाए कि अब हर क्षेत्रवाद की उपज से संस्थान बर्बाद हो रहे हैं। प्रदेश अब न समग्रता से गतिशील है और न ही प्रगतिशील है, बल्कि ऐसे संस्थानों को चरागाह बनाया जा रहा है। यहां भारतीय होटल प्रबंधन संस्थान की स्थापना किसी पर्यटन स्थल पर नहीं होती, जबकि कृषि उत्पादक क्षेत्रों से दूर कहीं कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना होती है। इसी तरह जब निजी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खुले तो एक ही पंचायत क्षेत्र में आधा दर्जन खुल गए। सोलन को बनाने तो चले थे शिक्षा का हब, लेकिन राजनीतिक प्राथमिकताओं ने शिक्षा के परचे ही फाड़ दिए। नतीजतन कई शटर बंद होने के कगार पर हैं। यही द्वंद्व केंद्रीय विश्वविद्यालय के परिसर और परिचय को लेकर अगर धूमल सरकार के दौर से शुरू हुआ, तो सुक्खू सरकार आने तक भी प्रश्नांकित है। हमने शिक्षा को राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के ताने बाने में फंसा कर छात्रों के वास्तविक करियर को ही लावारिस बना दिया। अब हर कालेज को स्नातकोत्तर बनाने की होड़ में उपलब्धियां तो रैगिंग सरीखी ही होंगी।

आश्चर्य यह कि कांगड़ा के थुरल जैसे कालेज की जमीन पर बाढ़ का कब्जा हो जाता है, तो मटौर का सारा कालेज सडक़ पर क्लास लगाता है। शिक्षा में करियर की तलाश के लिए हमारे पास अगर संस्थान नहीं होंगे, तो इन परिसरों की अनिश्चितता छात्रों को असंवेदनशील ही बनाएगी। हिमाचल में पहले निजी विश्वविद्यालयों के अलावा डेढ़ दर्जन इंजीनियरिंग कालेजों ने छात्रों से तौबा की, तो अब मेडिकल कालेजों से हर साल आठ सौ के करीब तैयार होने वाले डाक्टर आखिर कहां जाएंगे। जीने और आगे बढऩे की प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन अगर नाहन मेडिकल कालेज में करें, तो हिमाचल का सूचकांक समझ आ जाएगा और अगर डाक्टरों के प्रोफेशन को अस्पतालों में पसरे संघर्ष के माहौल में देखें तो अस्थिरता के मजमून समझ आएंगे। दोनों ही परिस्थितियों में राज्य की तस्वीर के गुणात्मक पहलू नदारद हैं, तो असंवेदनशीलता के बीच न तो सरकार का पक्ष और न ही नागरिक समाज की भूमिका दिखाई देती है। इस दौरान एक अलग तरह का व्यापारवाद फैल रहा है। यानी निजी अस्पताल अपने विकल्प में सरकारी डाक्टरों से विश्वसनीयता छीन रहे हैं, तो यह परिस्थिति असंतुलन पैदा कर रही है। बावजूद इसके सरकारी अस्पतालों में ओपीडी संख्या में निरंतर इजाफा तथा चिकित्सा के मूल सिद्धांतों के प्रति जनता की पसंद दिखाई देती है। यह डाक्टरों की हड़ताल में स्पष्ट नजर आ रहा है, कि उनसे किस स्तर की संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसे में अगर सरकार को अपना चिकित्सकीय ढांचा प्रतिष्ठित करना है, तो सर्वप्रथम डाक्टर के भीतर एक संतुष्ट मानव पैदा करना होगा। डाक्टरी की पढ़ाई का उत्तम परिदृश्य वो नहीं जहां प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षु रैगिंग की ओर भटक जाएं और यह भी नहीं कि हड़ताल के विकल्प तक पहुंच जाएं। सरकार कई तरह की नियुक्तियों व कॉडर विसंगतियों की दुरुस्ती में तीव्रता दिखा रही है, तो शीघ्रता से एनपीए जैसे नियमों की गारंटी देने की ओर भी उदार होना चाहिए। मरीजों को हो रही दिक्कत के लिए कोई एक वर्ग दोषी नहीं, बल्कि यह चिकित्सा सेवाओं के प्रति सरकार की लापरवाही भी है।