पिंजरे में दावत

सियासत यूं तो महत्त्वाकांक्षा का दाना है, लेकिन चुगने वालों की दावत कई बार पिंजरों में फंसा देती है। अपने-अपने मुकाम के संघर्ष में हिमाचल कांग्रेस के छह विधायक यूं तो एक प्रभावशाली धड़ा है, लेकिन सत्ता के संकट में उनके पक्ष में अनिश्चितता है। राज्यसभा सीट गंवा बैठी कांग्रेस भी फिलहाल दूध से धुली न•ार नहीं आ रही, लेकिन अदालत की पहली दरख्वास्त पर बागी विधायकों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल रास्ता आसान नहीं किया। माननीय अदालत ने बागी विधायकों की फरियाद पर चंद टिप्पणियां तो कीं, लेकिन किसी फैसले की शरण उन्हें नहीं दी। जिरह से जुबां तक और जुबां से मुकाम तक, हिमाचल में सरकार बनाम बागी विधायकों के बीच सियासी समीकरण रेंग रहे हैं, तो भाजपा के साथ भी सुर जोडऩे की कलह विद्यमान है। यानी यह मुद्दा घिसट कर पेचीदा और लोकसभा चुनाव का पसंदीदा शायर बन गया है। इसी संदर्भ में अगर सुप्रीम कोर्ट ने पूछ लिया कि बागी अपनी कानूनी लड़ाई के लिए पहले हाईकोर्ट क्यों नहीं गए, तो बताने के मार्ग पर मील पत्थर लगाने पड़ेंगे। अपने निर्णय की धाक पर विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया ने जिस शिद्दत से व्हिप की सूली पर बागियों की सदस्यता छीनी है, उससे राजनीति बेरहम हुई या सत्ता ने खुद को सलामत कर लिया। सत्य के दरवाजे पर पहुंचा मुद्दा भले ही बागियों की मुखबिरी कर रहा है, लेकिन हिमाचल के लिए यह घटनाक्रम अपमान की श्रेणी में आकर पढ़े-लिखे लोगों के राज्य पर प्रश्न खड़े कर रहा है।

सवाल बागियों पर हैं, तो सरकार पर भी उठे हैं और सामने बर्जिश कर रही भाजपा की मांसपेशियों पर भी हैं। बेशक हिमाचल अब मध्यप्रदेश या महाराष्ट्र नहीं बन सका, लेकिन कुल नौ विधायकों के लिए की गई किलेबंदी का गणित इतना भी सरल नहीं कि माथापच्ची न की जाए। भाजपा की सफलता का चक्र कांग्रेस से कहीं व्यापक, तीव्र व सुदृढ़ है, लेकिन हिमाचल के प्रकरण में कांग्रेस अभी तक विफल नहीं हुई है। भले ही पार्टी से राज्यसभा की एक सीट छीन ली गई या नौ विधायकों की पेशबंदी में कांग्रेस के पांव फंसे हैं, लेकिन भाजपा के लिए इस सीरियल की कहानी टेढ़ी हो चुकी है। मामला अदालत की सर्वोच्चता में किस करवट बैठता है, इसे लेकर राजनीतिक चुंबक भी परेशान हैं। बागी विधायकों पर आया विधानसभा अध्यक्ष का फैसला प्रतिकूल बना रहेगा या सुप्रीम कोर्ट से राहत के इतंजार में आगामी सदियां गुजर जाएंगी। जो भी हो, आगामी सोमवार तक सरकार के पास अपना सिक्का जमाने का एक और अवसर तो है ही और इसी के परिप्रेक्ष्य में एक बागी निर्दलीय विधायक आशीष शर्मा और दूसरे कांग्रेस विधायक चैतन्य शर्मा के पिता एवं पूर्व नौकरशाह राकेश शर्मा के खिलाफ हुई एफआईआर की जद में आई जमीन खिसक रही है या ऐसे ताबड़तोड़ हमलों की बिसात पर सियासी कत्ल होते रहेंगे। कहना न होगा कि बागी विधायकों की रियासत को बागी होने से बचाने के लिए एक नई या पीछे रह गई कांग्रेस को इंचार्ज बनाया जा रहा है। अब संगठन व सत्ता का एक साम्राज्य है और जिसे मुख्यमंत्री चला रहे हैं।

बेशक कांग्रेस आलाकमान ने समन्वय समिति के गठन में सत्ता को संगठन और संगठन को सत्ता के करीब दिखाने का प्रयत्न किया है, लेकिन सारे घटनाक्रम का जादू अनेक मुट्ठियों में बंद है। और तो और, अदालत ने भी कानून की मुट्ठियों में किसी फैसले की तहरीर को छुपा रखा है। समन्वय समिति की खोज में कौल सिंह ठाकुर व रामलाल ठाकुर का आगमन आशा जगाता है। कांग्रेस के सन्नाटों में खो रहे ऐसे चेहरों के आगमन से सत्ता का अनुभव पुख्ता हो सकता है। फिलहाल कांग्रेस के रक्षा कवच मुखातिब हैं और सरकार के करतब भी चमक पैदा कर रहे हैं। सारी अशांति के ऊपर फैलाई गई चादर कितना असर रखती है, इसका अंदाजा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लोकसभा चुनाव तक बहुत कुछ प्रमाणित करेगा।