सगुण भक्ति का सूत्रधार : राम काव्य

तुलसी ने राम को किसी एक धर्म का बना कर स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने तो राम के व्यक्तित्व से समग्र संसार के जनमानस को पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से संचालित करने का आधार बनाकर प्रेरणा लेने का संदेश दिया। सगुण भक्ति का सूत्रधार राम काव्य ही है…

वेदों और पुराणों में वर्णित राजा दशरथ के पुत्र राम कालांतर में ईश्वरीय रूप में स्वीकार करके पूजे जाने लगते हैं। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण इस मान्यता को अधिक प्रबल एवं प्रगाढ़ करती है। आश्रम से निकलकर तमसा नदी के तट पर विचरण करते हुए वाल्मीकि ने एक व्याध द्वारा काम-मोहित क्रौंच-दंपति में से एक को अपना लक्ष्य बनाने पर क्रौंची के करुण क्रंदन को सुना तो उनका कवि हृदय चीत्कार कर उठा और कवि के हृदय का शोक निम्न श्लोक बनाकर फुट निकला-‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगण : शाश्वती: समा:।/यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काम मोहितम्।।’ व्याध को श्राप देकर महर्षि अपने आश्रम में लौट आए, किंतु उनका मन अशांत था। इसी समय ब्रह्माजी ने महर्षि के पास आकर कहा- ‘ऋषे प्रबुद्धोअ्सि रामचरितं ब्रूहि।’ आपके प्रतिभा-चक्षु उन्मीलित हो गए हैं। अब आप नदियों में गंगा के समान सभी राजाओं में सर्वोच्च आदर्श श्रीराम के जीवन का वर्णन करें, जिससे लोक में आदर्श और मर्यादा की स्थापना हो सके। ब्रह्माजी ने श्री राम को विग्रहवान (शरीरधारी) धर्म घोषित किया था। ब्रह्मा जी के कथन को शिरोधार्य कर महर्षि ने रामायण की रचना की। इस ग्रंथ को आदि काव्य और इसके रचयिता को आदि कवि का गौरव प्राप्त हुआ। महर्षि के मुख से व्याध के लिए निकले श्लोक में जिस छंद का प्रयोग हुआ था तथा अपनी रचना में कवि ने जिन अन्य छंदों का प्रयोग किया, उन्हें भी वैदिक छंदों से भिन्न, सर्वथा नयी आविष्कृति कहा गया। पन्द्रहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के आरंभ होने से सभी भारतीय आर्य भाषाओं से लेकर स्थानीय बोलियों में भी राम भक्ति का नया रूप सामने आया।

यद्यपि इसका सूत्रधार दक्षिण के आलवर संतों को माना जाता है, तथापि यह स्वीकार किया जाता है कि आलवर संतों के माध्यम से ही राम भक्ति काव्य आंदोलन उत्तरी भारत में पहुंचकर जन-जन की राम के प्रति ईश्वरीय भावना को सुदृढ़ करने का आधार बना। ‘हिंदी के साथ-साथ अन्य सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन प्रसंगों को लेकर विविध काव्यों की पुष्कल रचना हुई है। बंगला भाषा में कृतिवासी- कृत ‘रामायण’, तमिल में महाकवि कम्ब की ‘कम्ब रामायण’ तथा तेलुगू की ‘रंग रामायण’ एवं ‘भास्कर रामायण’ ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पर्याप्त सीमा तक हिंदी राम काव्य परंपरा को भी प्रभावित किया है। कृतिवासी- रामायण, वाल्मीकि रामायण के गौडिय़ा पाठ से तथा ‘कम्ब रामायण’, ‘रंग रामायण’ एवं ‘भास्कर रामायण’ उसके दक्षिणात्य पाठ से उपकृत है। कृतिवासी रामायण पर समसामयिक शैव एवं शाक्त संप्रदायों का प्रभाव भी लक्षित किया जा सकता है। मराठी के सुप्रसिद्ध संत एकनाथ द्वारा प्रणीत भावार्थ रामायण ने भी परवर्ती भक्त कवियों को व्यापक प्रेरणा प्रदान की है। स्वामी रामदास की शिष्या वेणा बाई देशपांडे द्वारा रचित रामायण तथा स्वामी रामदास के ही एक अन्य शिष्य गिरिधर स्वामी की अद्र्ध रामायण, मंगल रामायण, सुंदर रामायण, संकेत रामायण आदि लगभग छह रामायण से भी मराठी साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है। असमिया में राम काव्य की शैली की दृष्टि से पद- रामायण, गीति-रामायण, कथा-रामायण, कीर्तनिया रामायण आदि विभिन्न रूपों में उपलब्ध होता है और राम काव्य के प्रणेताओं में माधव कन्दली, शंकर देव, माधव देव, अनंत कन्दली, रघुनाथ महंत, अनन्त ठाकुर, प्रभृति भक्त कवि अत्यधिक सुप्रसिद्ध हैं। गुजराती में यद्यपि राम काव्य की अपेक्षा कृष्ण काव्य का प्रणयन अधिक हुआ है, किंतु राम काव्य की अविरल धारा इस भाषा में भी विद्यमान है और कवि भालण, विष्णुदास, मधुसूदन, श्रीधर आदि गुजराती राम काव्य के उल्लेख्य प्रणेता हैं।

उक्त भावना को प्रबल रूप में स्थापित करने के लिए राम भक्ति काव्य धारा के प्रमुख आधार स्तंभ कवि तुलसीदास हैं जिन्होंने जन भाषा अवधी में रामचरितमानस की रचना करके राम को जन-जन का प्रिय बना दिया। अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना करने का विरोध तुलसीदास को तत्कालीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था का संचालन करने वाले विद्वानों का मुकाबला करते हुए झेलना पड़ा। अवधी में रामचरितमानस की रचना होने से उन्हें अपनी आजीविका पर आघात लगता हुआ प्रतीत हो रहा था। वे महसूस कर रहे थे कि यदि राम का आदर्शवादी एवं मर्यादा पुरुषोत्तम रूप आम जन अवधी भाषा के माध्यम से जान लेगा तो उनकी विद्वता की कदर कम होने लगेगी। इससे पूर्व उनके पूर्वज बौद्ध दर्शन एवं विचारधारा का विरोध कर चुके थे। सिद्धार्थ भारत में जन्म लेते हैं, अपनी तपस्या से बुद्धत्व प्राप्त करते हैं। उस सुधारवादी विचारधारा को ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने भारत में पनपने नहीं दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्म संसार के अन्य देशों में फलता-फूलता विकसित होता हुआ चला गया, किंतु भारतवर्ष में उसे वह स्थान प्राप्त नहीं हो सका जो होना चाहिए था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था नहीं चाहती थी कि उनकी विचारधारा के अतिरिक्त कोई और धार्मिक विचारधारा इस देश में विकसित हो तथा जन-जन की पूजा का आधार बने। कलि काल में तुलसी से बढक़र राम भक्त कोई नहीं हो पाया है।

तुलसी ने राम के आदर्शवादी एवं मर्यादा पुरुषोत्तम रूप को जन-जन तक पहुंचा कर भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की जो मिसाल स्थापित की, उसका परिणाम यह हुआ कि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का संसार की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ। रामचरितमानस को बाइबल के समकक्ष रचना माना जाने लगा। तुलसी ने राम को किसी एक धर्म का बना कर स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने तो राम के व्यक्तित्व से समग्र संसार के जनमानस को पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से संचालित करने का आधार बनाकर प्रेरणा लेने का संदेश दिया। तुलसी का मानवता के लिए यही सबसे बड़ा उपहार है। राम भक्ति काव्य मूलत: लोक धर्म और भक्ति-साधना का ही काव्य है। लोक पक्ष का यहां त्याग नहीं है। सगुण भक्ति का सूत्रधार राम काव्य ही है।

डा. राजन तनवर

शिक्षाविद