गणगौर पूजा : अनुराग उत्पन्न करने वाली

गणगौर एक त्योहार है जो चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है…

गणगौर पूजन कब और क्यों

नवरात्र के तीसरे दिन यानी कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (मां पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान मांगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गई। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती हैं। सुहागिन स्त्री पति की लंबी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरंभ की जाती है।

सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बागीचे में जाती है, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है, उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही, पानी, सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है। आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर) के साथ अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहां जाती हैं और वहां से मिट्टी के बर्तन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती हैं। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाती हैं। जहां पूजा की जाती है, उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहां विसर्जन किया जाता है, वह स्थान ससुराल माना जाता है।

राजस्थान का अत्यंत विशिष्ट त्योहार

राजस्थान का तो यह अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती को तथा पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र मास की तीज को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है, यानी कि विसर्जित किया जाता है। विसर्जन का स्थान गांव का कुआं या तालाब होता है। कुछ स्त्रियां जो विवाहित होती हैं, वो यदि इस व्रत की पालना करने से निवृति चाहती हैं वो इसका अजूणा करती हैं (उद्यापन करती हैं), जिसमें सोलह सुहागन स्त्रियों को समस्त सोलह श्रृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती हैं। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।

उत्सव और अनुष्ठान

गौरी पूजन का यह त्योहार भारत के सभी प्रांतों में थोड़े-बहुत नाम भेद से पूर्ण धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दिन स्त्रियां सुंदर वस्त्र औ आभूषण धारण करती हैं। इस दिन सुहागिनें दोपहर तक व्रत रखती हैं। व्रत धारण करने से पूर्व रेणुका गौरी की स्थापना करती हैं। इसके लिए घर के किसी कमरे में एक पवित्र स्थान पर चौबीस अंगुल चौड़ी और चौबीस अंगुल लंबी वर्गाकार वेदी बनाकर हल्दी, चंदन, कर्पूर, केसर आदि से उस पर चौक पूरा जाता है। फिर उस पर बालू से गौरी अर्थात पार्वती बनाकर (स्थापना करके) इस स्थापना पर सुहाग की वस्तुएं- कांच की चूडिय़ां, महावर, सिंदूर, रोली, मेहंदी, टीका, बिंदी, कंघा, शीशा, काजल आदि चढ़ाया जाता है। चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से गौरी का विधिपूर्वक पूजन करके सुहाग की इस सामग्री का अर्पण किया जाता है। फिर भोग लगाने के बाद गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से महिलाएं अपनी मांग भरती हैं। गौरीजी का पूजन दोपहर को होता है। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर पर विशेष रूप से मैदा के गुने बनाए जाते हैं। लडक़ी की शादी के बाद लडक़ी पहली बार गणगौर अपने मायके में मनाती है और इन गुनों तथा सास के कपड़ों का बायना निकालकर ससुराल में भेजती है। यह विवाह के प्रथम वर्ष में ही होता है, बाद में प्रतिवर्ष गणगौर लडक़ी अपनी ससुराल में ही मनाती है। ससुराल में भी वह गणगौर का उद्यापन करती है और अपनी सास को बायना, कपड़े तथा सुहाग का सारा सामान देती है। साथ ही सोलह सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराकर प्रत्येक को संपूर्ण श्रृंगार की वस्तुएं और दक्षिणा दी जाती है। गणगौर पूजन के समय स्त्रियां गौरीजी की कथा भी कहती हैं।

मस्ती का पर्व

होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो जाता है जो पूरे सोलह दिन तक लगातार चलता रहता है। गणगौर के त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। यह उत्सव मस्ती का पर्व है। इसमें कन्याएं और विवाहित स्त्रियां मिट्टी के ईशर और गौर बनाती हैं, उनको सुंदर पोशाक पहनाती हैं और उनका श्रृंगार करती हैं। स्त्रियां और कन्याएं भी इस दिन गहने और कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं। गणगौर के दिन कुंआरी कन्याएं एक खेल भी खेलती हैं जिसमें एक लडक़ी दूल्हा और दूसरी दूल्हन बनती है, जिन्हें वे ईशर और गौर कहते हैं और उनके साथ सखियां गीत गाती हुई उन दोनों को लेकर अपने घर से निकलती हैं और सब मिलकर एक बागीचे पर जाती हैं। वहां पीपल के पेड़ के जो इशर और गौर बने होते हैं, वो दोनों फेरे लेते हैं। जब फेरे पूरे हो जाते हंै तब ये सब नाचती और गाती हैं। उसके बाद ये घर जाकर उनका पूजन करती हैं व भोग लगाती हैं।