गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

यजुर्वेद मंत्र 31/1 का यही भाव है कि मनुष्य और पशु-पक्षी आदि के शरीर में ईश्वर विराजमान है। अत: जितने भी मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि के मुख, नेत्र, बाहु, जंघाएं, पैर और उदर (पेट) हैं, वह सभी निराकार परमेश्वर के हैं, परमेश्वर के दिए हुए हैं…

गतांक से आगे…
वह अपने स्वाभाविक स्वभाव (सर्वव्यापक गुण) के कारण ब्रह्मांड के कण-कण में विराजमान है। अत: मनुष्यों के शरीर में भी है। यजुर्वेद मंत्र 31/1 का यही भाव है कि मनुष्य और पशु-पक्षी आदि के शरीर में ईश्वर विराजमान है।

अत: जितने भी मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि के मुख, नेत्र, बाहु, जंघाएं, पैर और उदर (पेट) हैं, वह सभी निराकार परमेश्वर के हैं, परमेश्वर के दिए हुए हैंर्। यजुर्वेद मंत्र 31/1 एवं ऋग्वेद मंत्र 10/90/1 कहता है कि

‘सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम।

(पुरुष) सब जगह जगत में पूर्ण व्यापक परमात्मा है उसमें (सहस्रशीर्षा) सहस्र-असंख्य शिर हैं (सहस्राक्ष:) सहस्र अर्थात असंख्य आंखें हैं (सहस्रपात) जिसमें सहस्र अर्थात असंख्य पैर हैं (स:) वह परमेश्वर (सर्वत:) सब स्थानों में (भूमिम) ब्रह्मांड को (स्पृत्वा) व्याप्त करके (दशाङ्गुलम) दश अंगुल अर्थात पांच सूक्ष्म भूत एवं पांच स्थूल भूत, यह दश अव्यव वाले जगत को (अति, अतिष्ठत) लांघ कर स्थित है अर्थात ईश्वर सब जगत के कण-कण में भी है और सब जगत से अलग भी है।

अर्थ- सब जगह जगत में जो पूर्ण व्यापक परमात्मा है उसके सहस्र असंख्य शिर हैं, सहस्र अर्थात असंख्य आंखें हैं जिसमें सहस्र अर्थात असंख्य पैर हैं, वह परमेश्वर सब स्थानों से ब्रह्मांड को व्याप्त करके दश अंगुल अर्थात पांच सूक्ष्म भूत एवं पांच स्थूल भूत, यह दस अवयव वाले जगत को लांघकर स्थित है अर्थात ईश्वर सब जगत के कण-कण में भी है और सब जगह से अलग भी है। -क्रमश: