हिमाचल की चुनावी पड़ताल

राष्ट्रीय चुनाव की कसौटी के बीच हिमाचल की अपनी भी एक पड़ताल अवश्यंभावी दिखाई दे रही है। भले ही आज यानी 18 मार्च में वक्त की सूइयां सुप्रीम कोर्ट से मुखातिब हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव के साथ उपचुनाव के दस्तावेज तैयार हैं। राजनीतिक घटनाक्रम किसको दगा दे गया या आगे चलकर उपचुनाव किस करवट बैठेंगे, यह कयास लगाना इतना भी आसान नहीं कि हम इसे सत्ता और विपक्ष के बीच अभी तौल सकें। यह दीगर है कि क्रॉस वोटिंग से पैदा हुई अनिश्चितता के आयाम जरूर बदल रहे हैं। क्रॉस वोटिंग से उपचुनाव तक पहुंची कांग्रेस के समक्ष लोकसभा से भी बड़ी चुनौती उस परिस्थिति में होगी, अगर उपचुनाव की अनिवार्यता में पार्टी को अपना सत्ता पक्ष बरकरार रखना होगा। चुनाव की जेब में भाजपा या कांग्रेस की दौलत भरी है या एक कातिल मौका सामने आकर खड़ा हो रहा है। कहना न होगा कि भाजपा को विपक्षी मछली का शिकार करना इतना रास आ गया है कि पहले अति सुरक्षित कांग्रेस से राज्यसभा की सीट सरेआम छीन ली और अब उपचुनाव की स्थिति में फिर से सियासी शृंगार का अवसर मिल गया। अब छह विधायकों का बागीपन अपनी आशंका की सुबह में नए चिन्ह तलाश करेगा। धर्मशाला, सुजानपुर, लाहुल-स्पीति, बड़सर, गगरेट व कुटलैहड़ के राजनीतिक लालन पालन में सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा, रवि ठाकुर, आईडी लखनपाल, चैतन्य शर्मा व देवेंद्र भुट्टो क्या फिर से लाडले बन पाएंगे।

क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला उपचुनाव की संभावना को खारिज कर देगा या इसकी नौबत में आकर बागी विधायकों को फिर से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। क्या क्रॉस वोटिंग का सम्मान समारोह आयोजित करके भाजपा अपने आंगन के फूल बदल कर, सभी के सभी पूर्व कांग्रेसियों को गले लगा लेगी। क्या भाजपा सुधीर शर्मा को लोकसभा चुनाव के मैदान पर उतारने की स्थिति में खुद को आजमा सकेगी। ऐसे में उपचुनाव में दोनों पार्टियों की आजमाइश सिर्फ चुनाव तक ही सीमित नहीं, बल्कि पार्टी के सामान्य जन तक भी होगी। भाजपा के आकाश में मोदी का प्रकाश तो है, लेकिन मुद्दों की पड़ताल में अब चुनावी बांड और इससे जुड़े भ्रष्टाचार के आरोप भी रहेंगे। कांग्रेस जिन विधायकों से मुक्त होकर सत्ता का नूर बढ़ाना चाहती थी, वहां अब छह नए प्रत्याशियों की खोज, मुख्यमंत्री का ओज और सरकार के पद आबंटन का बोझ स्वयं सिद्ध होने के लिए कटिबद्ध होगा। अगर उपचुनाव की छह सीटों में कम से कम चार पर कांग्रेस जीत जाए, तो यह मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के आभामंडल को राहत देगा, लेकिन यहां सारे उपचुनावों के साथ-साथ लोकसभा की चार सीटों की जीत में वह अपना एकछत्र साम्राज्य तथा पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह के बाद राज्य की तस्वीर में प्रभुत्व लिख सकते हैं।

इसमें दो राय नहीं कि बतौर मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के समक्ष कांग्रेस की गारंटियों से जुड़ी वचनबद्धता रही है और अपने फर्ज में वह आगे निकले हैं। राज्य की वित्तीय मजबूरियों के बावजूद प्रदेश में ओपीएस व पात्र महिलाओं को पंद्रह सौ के भुगतान की पिच पर मुख्यमंत्री एक सफल राजनीतिक बल्लेबाज स्थापित हुए हैं। चुनावी मुखरता के संदेशों में वह डीए की किस्त दे चुके हैं, जबकि आंतरिक हलचल व विरोधाभासों के बावजूद अपनी सरकार के पैगाम बांटते हुए वह कुछ विधानसभाई क्षेत्रों की विकासात्मक माप मपाई के अलावा सत्ता के पदों का आबंटन करते भी दिखाई दिए हैं। प्रदेश की राजनीतिक स्थितियां 7 मई की नामांकन तारीख तक किस तरह करवट बदलती हैं, लेकिन चुनावी फेहरिस्त में हिमाचल का मूड कई संभावनाओं को टटोल रहा है। कांग्रेस से एक कांग्रेस छह बागियों के माध्यम से गुम हुई है और नए अवतार में पार्टी का पौरुष फिर से कितना दमदार साबित होता है, यह चुनाव की आहट से नहीं, बल्कि इसमें डूब कर ही पता चलेगा। हिमाचल का राजनीतिक उफान फिर से जोखिम भरी चुनौतियों से मुखातिब है, इसमें दो राय नहीं।