चुनावी बॉन्ड ‘काला धन’ कैसे?

चुनावी बॉन्ड को सर्वोच्च अदालत ‘असंवैधानिक’ करार दे चुकी है और उन पर रोक भी लगा दी गई है, लिहाजा यह अध्याय यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था। अब चुनाव आयोग अपनी वेबसाइट पर वे ब्योरे जारी कर रहा है, जो भारतीय स्टेट बैंक ने भेजे हैं और जारी करने का आदेश सर्वोच्च अदालत का है। कांग्रेस समेत विपक्ष के दल इस चुनावी चंदे को ‘बहुत बड़ा घोटाला’ चित्रित कर रहे हैं, जो हास्यास्पद राजनीति है। यदि बॉन्ड के जरिए फरवरी, 2024 तक करीब 7700 करोड़ रुपए का चंदा भाजपा को मिला है, तो नवम्बर, 2023 तक 1334.35 करोड़ रुपए का चंदा कांग्रेस के हिस्से भी आया है। गणना कर लें कि फरवरी, 2024 तक कितना पैसा कांग्रेस के खजाने तक पहुंचा होगा! सूची में दूसरा स्थान तृणमूल कांग्रेस का है, जिसे 1397 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। एक क्षेत्रीय दल को इतना चंदा…! सूची में बीआरएस, बीजद, द्रमुक, वाईएसआर कांग्रेस, टीडीपी, राजद, एनसीपी, सपा, अकाली दल, अन्नाद्रमुक आदि क्षेत्रीय दल भी हैं, जिन्हें उनकी हैसियत के मुताबिक करोड़ों में चंदा दिया गया है। क्या कांग्रेस समेत वे सभी दल ‘घोटालेबाज’ हैं? चुनावी बॉन्ड पर शीर्ष अदालत के फैसले पर कोई सवाल नहीं, अलबत्ता देश का बौद्धिक और जागरूक वर्ग कमोबेश चिंतन कर सकता है कि ऐसा चुनावी चंदा ‘घोटाला’ कैसे माना जा सकता है? विश्व में ऐसा कोई देश नहीं है, जहां राजनीतिक दलों को चंदा न दिया जाता हो। जहां आम चुनाव के लिए सरकारें आर्थिक संसाधन मुहैया कराती हैं, वहां भी औद्योगिक घराने और वैचारिक तौर पर जुड़ी आम जनता चुनावी चंदे देती रही है।

यह एक सार्वजनिक परंपरा और प्रक्रिया है। औसत करदाता को आयकर या अन्य कर-योग्य संपदा में छूट भी मिलती है, लिहाजा देश की आजादी और संविधान को ग्रहण करने के बाद चंदा देने की परंपरा रही है। इस चंदे के संदर्भ में ‘काला धन’ का खूब शोर मचाया जा रहा है, लेकिन जो पैसा देश के बुनियादी ढांचे के विकास और जन-कल्याण की परियोजनाओं में निवेश किया जाता रहा है, उस आर्थिक स्रोत को ‘काला धन’ करार कैसे दिया जा सकता है? दरअसल चुनावी बॉन्ड के तौर पर व्यक्ति, संस्थान, औद्योगिक ईकाई और समूह जितना पैसा निवेश करते हैं, वह अनिवार्य रूप से उनके खातों में दिखाया जाता है। जिन राजनीतिक दलों को बॉन्ड के जरिए चंदा मिला है, उसे दलों ने भी अपने अधिकृत खातों में दिखाया होगा। चुनाव आयोग एक निश्चित अंतराल पर इन खातों की जांच करता रहा है। तो फिर बॉन्ड में खर्च किया गया धन ‘काला धन’ कैसे कहा जा सकता है? दरअसल ‘काला धन’ वह है, जिसे आरोपित व्यक्ति या कॉरपोरेट घराने अथवा राजनेता विदेशी बैंकों में खाते खुलवा कर जमा कर देते हैं और कर-जांच एजेंसियों को उनके खुलासे भी नहीं किए जाते। ऐसे कई ‘काले रहस्योद्घाटन’ हो चुके हैं। अभी तक चुनाव आयोग के जरिए जितने चुनावी बॉन्ड सार्वजनिक किए गए हैं, उनमें रिलायंस, अंबानी, टाटा, बिरला सरीखे बड़े औद्योगिक समूहों के नाम नहीं हैं। क्या वे राजनीतिक दलों को चंदा नहीं देते? सबसे अधिक 1368 करोड़ रुपए के बॉन्ड खरीदने वाले ‘लॉटरी किंग’ मार्टिन की कंपनी ‘फ्यूचर गेमिंग’ पर प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, आयकर आदि सरकारी एजेंसियों के कई बार छापे मारे जा चुके हैं, जेल भी जाना पड़ा है, फिर भी उसने सर्वाधिक चंदा दिया है। चूंकि कंपनी का मुख्यालय अब तमिलनाडु में है, लिहाजा वहां की सत्तारूढ़ पार्टी द्रमुक को 509 करोड़ रुपए का चंदा दिया गया है। ऐसी कई कंपनियां चुनावी चंदे की सूची में हैं, जिनका मुनाफा कम है, लेकिन वे कई गुना ज्यादा चंदा दे रही हैं। ऐसी भी खबरें आई हैं कि किसी ने बंद लिफाफे में 1-1 करोड़ के 10 बॉन्ड जद-यू के दफ्तर में भेज दिए। भाजपा को 8 बार एक ही दिन में 100-100 करोड़ मिले। एक दिन में 200 करोड़ भी मिले। भाजपा, कांग्रेस, तृणमूल सहित कई दलों ने चंदा देने वालों के नाम के खुलासे नहीं किए हैं। बताया जाता है कि बसपा, इंनेलो, एमआईएम, एनपीपी समेत कई छोटे दलों को बॉन्ड से चंदा नहीं मिला है।