ब्रह्म का ज्ञान

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…
मुंशी जी ने दिल ही दिल में सोचा ये तो साधारण से साधु दिखाई दे रहे हैं, इस तरह का वेश बनकर चोर, डाकू भी आ जाते हैं। इतने में स्वामी जी उठकर बैठ गए और बातचीत की शुरुआत हो गई। मुंशी जी ने आश्चर्य से देखते हुए पूछा स्वामीजी आप हिंदू संन्यासी होते हुए भी एक मुसलमान के घर पर क्यों ठहरे हुए हैं? आप इनके हाथ का बना हुआ भोजन किस प्रकार करोगे?
स्वामी जी ने जवाब दिया आप क्या कहना चाहते हैं? मैं एक संन्यासी हूं और इन बातों से बिलकुल परे हूं। मैं एक जमादार के साथ बैठकर भी भोजन कर सकता हूं। मैं निर्भय हूं। मुझे शास्त्रों का कोई डर नहीं, क्योंकि शास्त्र तो इसका समर्थन करते हैं। लेकिन हां, अगर मुझे डर है तो आप जैसे लोगों से, क्योंकि आप लोग भगवान की परवाह नहीं करते। मैं ब्रह्मा का ज्ञान रखता हूं। फिर मेरे लिए छूआछात, ऊंच-नीच क्या है? यह कहकर वह शिव-शिव का उच्चारण करने लगे। इतनी ही देर में स्वामी जी ने जगमोहन को अपनी बातों से प्रभावित कर दिया था। राजा बहादुर ने जब सैक्रेटरी के मुंह से स्वामी जी की बात सुनी तो उनका मन भी स्वामी जी के दर्शनों को व्याकुल हो उठा। उन्होंने स्वामी जी के पास निमंत्रण भेजा। उनकी प्रार्थना पर स्वामी जी जगमोहन के साथ उनके राजदरबार में पहुंचे।

स्वामी जी को देखते ही राजा बहादुर ने बड़ी श्रद्धा से उन्हें आसन ग्रहण करवाया और खुद उनके सामने खड़े होकर आदरपूर्वक बोले, स्वामी जी आखिर यह जीवन है कैसा? स्वामी जी ने उत्तर दिया हमारे अंदर की शक्ति मानों लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए अविराम चेष्टा कर रही है, इसी चेष्टा का नाम जीवन है। स्वामी जी के जवाब पर राजा बहादुर प्रभावित हुए और इज्जत के साथ उनसे कुछ दिन अपने यहां ठहरने का आग्रह करने लगे। कुछ दिनों बाद स्वामी जी ने वहां से जाने की आज्ञा मांगी तो उन्होंने बड़े दु:खी स्वर में अनिच्छा से आज्ञा दे दी। गुजरात के रेगिस्तानी अंचलों को पैदल लांघकर अहमदाबाद, लिबड़ी, जूनागढ़ आदि होते हुए सोमनाथ के दर्शन किए और पोरबंदर पहुंचे। इन्हीं दिनों लिबड़ी के राजा भी स्वामी जी के शिष्य बन गए। एक बार पोरबंदर की सडक़ों पर घूमते देखकर महाराज उन्हें अपने साथ महल में ले आए।

स्वामी जी कुछ दिन तक पोरबंदर में ही रहे फिर वहां से भी उनका मन घबराया, तो वहां से द्वारिका, मांडव, पालीटाना आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए बड़ोदरा में राज्य के दीवान बहादुर मणिभाई के यहां मेहमान बनकर रहे। वहां तीन सप्ताह रहने के बाद इन्हीं दिनों में मध्य भारत के दो तीन स्थानों का भ्रमण भी किया। भारत के विभिन्न प्रातों के लोगों से मिलने की इच्छा स्वामी जी में सौ गुना बढ़ गई थी। मुंबई, गुजरात, काठियावाड़ के अनेक छोटे-छोटे शासक व नरेशों से उन्होंने परिचय लिया। भ्रमण के ये दिन स्वामी जी के लिए महान शिक्षा का अवसर थे। इस समय में उन्होंने बहुत कुछ सीखा और बहुत कुछ ग्रहण किया। एक गोताखोर की तरह भारत रूपी रत्नाकर में से अमूल्य रत्नों का आहरण किया। भारत में जो विचार धन बिखरा हुआ था, उसको उन्होंने इक्कठा किया। सभी धर्मों को उन्होंने एक माना। अनेक धर्मों के मूल उद्गम का भी उन्हें पता चला। समास्त्रोत की कीचड़ भरी रुद्ध अवस्था को देखकर उनके प्राण वेदना से आकुल हो उठे। – क्रमश: