जीवन में आनंद की कमी

ओशो

क्या कभी सोचा है कि इतने मनोवैज्ञानिक, डाक्टर्स इतने इलाज कराने के बाद भी क्यों इनसान को ठीक नहीं कर पा रहे हैं? बीमारी दिन प्रतिदिन दिन बढ़ती जा रही है। इनसान पैसा लगाता है समय देता है, लेकिन बीमारी बिलकुल ठीक होने के बजाय और खराब होती जाती है। आज ये कहानी आपको उस सच्चाई से रू-ब-रू कराएगी, जो आजकल लोगों को समझनी बहुत जरूरी है कि बीमारी की असल जड़ क्या है?

न्यूयॉर्क के एक छोटे से स्कूल में जहां धनपतियों के बच्चे पढ़ते थे, एक बच्चे में कुछ अजीब से लक्षण दिखाई पडऩे लगे। चिंता की बात थी। कुछ पंद्रह-बीस दिनों से उस बच्चे ने हर चीज काले रंग में रंगनी शुरू कर दी थी। कोई भी चित्र बनाता तो काले रंग का बनाता। सूरज बनाता, गुलाब के फूल बनाता तो काले रंग का। समुद्र बनाता, मनुष्य बनाता तो काले रंग का। उसकी अध्यापिका चिंतित हो गई। काले रंग के प्रति उसका यह लगाव उसकी किसी निराशा और दुख के संकेत की खबर दे रहा था। उस बच्चे में अंधेरे के प्रति इतना मोह, काले के प्रति उसका इतना आकर्षण शुभ नहीं था। लिहाजा स्कूल के मनोवैज्ञानिक को इसकी खबर दी गई। मनोवैज्ञानिक ने 15-20 दिनों तक खोजबीन की। बच्चे के घर में, पड़ोस में जाकर सारी जानकारी इक_ी की। उसके बाद एक बड़ी सी रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें बड़े कारण बताए गए थे। बच्चे की घर की जिंदगी शायद सुखद नहीं थी। बच्चे के माता-पिता के बीच शायद अच्छे संबंध नहीं थे। झगड़ा था, विरोध था। घर का वातावरण उदास था। आसपास का वातावरण भी शायद अच्छा नहीं था। बच्चा जब गर्भ में था, तब उसकी मां बीमार रही थी। शायद इन सबका परिणाम बच्चे पर पडऩा शुरू हुआ। स्कूल के चिकित्सक को कहा गया तो उसने कहा शायद विटामिन्स की कमी है। उसकी वजह से बच्चा उदास और शिथिल हो गया। उसके जीवन में आनंद में कमी हो गई।

ये सारी रिपोर्टें आ गईं। उसका इलाज शुरू होता, उसके पहले एक और घटना घट गई और सारे निदान गलत हो गए। स्कूल के चपरासी ने स्कूल से निकलते वक्त बच्चे से पूछा, ‘मेरे बेटे’ मुझे तो बताओ, तुम काले रंग से ही चित्र क्यों बनाते हो? उस बच्चे ने बताया कि सच बात तो यह है कि मेरी डिब्बी के सब रंग खो गए हैं और काला रंग ही बचा है। उसे दूसरे रंग दे दिए गए और दूसरे दिन से ही उसने काले रंग से चित्र बनाना बंद कर दिया। बात इतनी ही थी कि उसकी डिब्बी के बाकी रंग खो गए थे। लेकिन इन विशेषज्ञों ने बड़ी बातें खोज निकाली थीं। अगर उन बातों के आधार पर उस बच्चे का इलाज होता तो आप सोच सकते हैं, उस बच्चे का क्या हुआ होता। वे इलाज खतरनाक साबित होते, क्योंकि जो बीमारी ही न हो, उसका इलाज सिवाय खतरे के क्या हो सकता है।

मनुष्य के साथ भी बहुत तरह के इलाज किए गए। मनुष्य के सब इलाज खतरनाक सिद्ध हुए हैं। शायद हमने उसके भीतर जाकर पूछा ही नहीं। देखा नहीं कि असल बात क्या है? आदमी के भीतर की समस्या को ठीक से पकडऩे की कोशिश नहीं की और इलाज शुरू कर दिए। पांच-छह हजार वर्षों से मनुष्य के इलाज हो रहे हैं। सब तरह के विशेषज्ञ उसका इलाज कर रहे हैं। पर सचाई यह है कि मनुष्य ज्यादा से ज्यादा बीमार होता जा रहा है। सारे धर्मों के इलाज, सारे विशेषज्ञों, सारे गुरुओं, सारे पुरोहितों की चिकित्साएं मनुष्य को और मरणासन्न किए जा रही हैं।

मनुष्य पर ये इलाज जारी रहे तो शायद उसके और ज्यादा दिन बचने की संभावना ही न रहे। बहुत से निर्दोष और गरीब आदमी उनके बीच फंसे हैं। और शायद हम यह सीधा सा सवाल पूछना ही भूल गए हैं कि आदमी की सारी बीमारी, सारी बेचैनी, मन के स्वभाव से तो संबंधित नहीं है।