मानुस सूअर भाई! भाई!

मैं अमुक नाम:, अमुक स्कूल:, अमुक शहर का स्वेच्छा से स्कूल मास्टरी के पेशे में आया पहला स्कूल मास्टर सूअरों के बाड़े के साथ बने किराए के कमरे में एक खास मकसद से सानंद रहता हूं। सूअरों के बाड़े के साथ बने किराए के कमरे में रहने का मेरा इरादा मेरा कम वेतन कदापि न लिया जाए। मैं अपने वेतन से पूरी तरह संतुष्ट हूं। मैं सूअरों के बाड़े के साथ बने किराए के कमरे में इसलिए रहता हूं कि रिटायर होने से पहले जो सच्ची को दो चार सूअरों को इन्सान बना गया तो मेरा स्कूल मास्टर होना सार्थक होगा। स्कूल में इसकी उसकी अप्रोच से बच्चे तो बहुत पास कर लिए। स्कूलों से पढ़ा समाज में जाते ही अपने शिष्य सूअर बनते भी बहुत देखे। पर इसमें मेरा कोई दोष नहीं। जब वे मेरे पास स्कूल में थे, तो वे आदमी के बच्चे ही थे। मेरे इस बयान को अन्यथा न लिया जाए। बड़े दिनों बाद कल सही समय पर किराए के कमरे से स्कूल की ओर राष्ट्रगान गुनगुनाता जा रहा था कि सामने गंदे पानी की नाली से एक सुगंधित कीचड़ का उबटन लगाए प्रौढ़ सूअर आया और सीधा मेरे गले लगा तो मैं हक्का बक्का! वैसे आज देसी दुर्गंध जब आयातित सुंगध का पर्याय बन गई हो तो ऐसे में आप दुर्गंध वालों को कुछ नहीं कह सकते। बस, नाक पकड़ कर उनकी दुर्गंदीली सुगंध का मात्र आनंद ले सकते हैं। वर्ना वे अपनी मानहानि को लेकर कोर्ट कचहरी में आपको खींच सकते हैं।

सच कहूं तो इस अप्रत्याशित मिलन को मैं कतई तैयार न था। मुझे अपने आसपास के सूअरों से उम्मीद तो बहुत थी, पर यह उम्मीद कतई न थी कि सूअर मेरे गले भी लग सकता है। मेरे गले लगते ही उसने नारा बुलंद किया- ‘मानुस सूअर भाई भाई!’ उसके मुखारबिंद से यह नारा सुन मैं चौंका! हद है यार! अब सूअर भी नारे लगाने लगे! तब दिमाग में बजा कि ये नारा तो पहले भी कहीं लिखा, सुना, पढ़ा है। पर यार स्कूल मास्टर! वह तो हिंदी चीनी भाई भाई था! फिर सोचा- इतने सालों से नारे ही तो रचे जा रहे हैं। तो अब मौलिक नारे कितने रचे जाएं? एक दीवार पर एक के ऊपर एक नारा दस दस बार चढ़ चुका है, शब्दों में थोड़ा थोड़ा हेरफेर कर। तो एक बार फिर मैंने सोचा! जन्मजात सूअर है! हो सकता है नारा सही नहीं बोल पाया होगा। सूअर में दिमाग होता भी कितना का है? पर चलो, मास्टर की बगल में रहते इतना क्या कम है कि नारा तो बोला। भले गलत ही सही। हे स्कूल मास्टर! आने लग गए अब सूअरों को सुधारने के तुम्हारे प्रयासों के दुष्परिणाम! वाह! तुम रिटायरमेंट से पूर्व ही धन्य हो गए! राष्ट्र निर्माण के साथ साथ सूअर निर्माण के लिए भी अब तुम भविष्य में जाने जाओगे। तब मैंने उससे नारा ठीक करवाने के इरादे से कहा, ‘हे सूअर श्री! नारा मानुस सूअर भाई! भाई ! नहीं, हिंदी चीनी भाई! भाई! है।’ ‘नहीं ! उस नारे के नतीजे संतोषजनक नहीं रहे थे।

इसलिए अब मानुस सूअर भाई भाई!’ उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा तो मुझे सूअर के भीतर जागे आत्मविश्वास को देख प्रसन्नता हुई। ‘मतलब?’ ‘मतलब गुरुवर ये कि तुम बिरादर हम सूअर एक तो भाई भाई इसलिए कि अब तुममें हमारी किडनी का सफल प्रत्यारोपण हो गया है। ऐसा भाई भाई में ही संभव है न? अब करते रहो कितनी ही अपनी किडनियां इसका उसका खून पीकर खराब। किडनी ही क्या, हम तो अपने बिरादरों को अपना अंग अंग दान देने को तैयार हैं ताकि… वैसे है तो तुममें दिल से लेकर दिमाग तक हमारा हीर, पर हम चाहते हैं कि दिल से लेकर दिमाग तक भी तुममें सब हमारा ही ऑरिजनल लगे। माइंड मत करिएगा सर! तुम्हारी किडनी फेल होने पर तो तुम्हारे सगे भी तुम्हें किडनी देने से पहले हजार बार सोचते हैं। पर अब हम सूअर हैं न! हम अपने भाइयों को अपना कुछ भी दान देने से बिल्कुल नहीं डरते। दूसरे, मानुस सूअर इसलिए भाई भाई कि…मानुसों के बच्चों में हमारे बच्चे पाए जाते हैं। तो हम हुए न सूअर चचा। भतीजे के चचा उसके फादर के क्या हुए? बिरादर ही न! तीसरे, बिरादर तुममें हमारा सूअरपना कूट कूट कर रग रग में। भरा है। ये तो बिरादरों में ही संभव होता है न!’ उसने मेरे आगे सीना चौड़ा कर कहा और एक बार फिर मानुस सूअर भाई! भाई! का नारा बुलंद कर गंदी नाली में लोटने लगा मानो वह पूरे शहर के गंद से सनी नाली में नहीं, किसी फाइव स्टार होटल के वीवीआईपी कमरे के बेड पर लोट रहा हो।

अशोक गौतम

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