भक्ति का अर्थ

श्रीश्री रवि शंकर

तुम्हारा पूरा जीवन, हर सांस जो तुम लेते हो उपासना का एक रूप है। भक्ति का अर्थ है आदर एवं सम्मान के साथ प्रेम करना। महज आराधना भक्ति नहीं है। आराधना का अर्थ है किसी व्यक्ति के खास गुणों के कारण उनसे प्रेम करना। सत्य सदैव सहज होता है एवं वह सृष्टि के सरलतम रूपों में परिव्याप्त है। परिवर्तन को जानो और अपरिवर्तनशील को देखो। जो बदल रहा है उसे जानो और अचानक ही तुम जीवंत हो उठोगे और इसके साथ ही तुम जड़ता या मृत्यु पर काबू पा सकोगे। मृत्यु से परे हटकर परिवर्तनशील सृष्टि तुम्हें आकर्षित करती है, अपरिवर्तनशील सृष्टि तुम्हें अमरता की झलक दिखाती है। ईशावास्य उपनिषद के पंद्रहवें पद में एक प्रार्थना है, ‘हे पालनकर्ता, यह पर्दा उठाइए’। प्रार्थना यह है कि सत्य का चेहरा एक पर्दे से ढक़ा हुआ है, कृपया उस पर्दे को उठाइए, ताकि मैं सत्य को देख सकूं। जीवन में हम बाह्य आवरण में फंसे रह जाते हैं, इस अद्भुत उपहार को हमने अभी तक खोला भी नहीं है। यदि मैं अपने आप सत्य को खोज सकूं तब वह सत्य है ही नहीं क्योंकि सर्वोच्च को केवल कृपा से प्राप्त किया जा सकता है। उस तक मेरे द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता। और फिर आत्मानुभूति का एक पद है। तुम्हें यह बोध कराने के लिए कि ‘मैं वह हूं’ सर्वप्रथम चेतना के सभी गुणों को रास्ता देना होगा।

चेतना के विभिन्न पहलू मन को अनुभव करने या अनुभव न करने में समर्थ बनाते हैं। उदाहरण के लिए जब तुम किसी एक व्यक्ति के साथ बातचीत कर रहे होते हो, तुम्हारी चेतना उस वक्त अलग होती है जबकि, जब तुम विभिन्न परिस्थितियों में भीड़ को संबोधित कर रहे होते हो, तो उस समय तुम्हारी चेतना कई अलग-अलग रूप धारण करती है। जब तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण और सजग होती है, तो चेतना ऐसा रूप लेती है जहां ध्यान नहीं होता। यहां प्रार्थना है ‘तुम्हारी दीप्ति को बिखेरो ताकि मैं तुम्हारे पवित्र रूप को देख सकूं। प्रार्थना है कि मुझे देखने दें क्योंकि मैं वही हूं ‘सो-हम’। सभी संस्कृतियों में शरीर पर राख मलते हैं। इसका उद्देश्य यह याद दिलाना है कि यह त्वचा राख में बदलने वाली है। यह जानने पर हम अनासक्त हो जाते हैं और यह हमें भूल करने से रोकता है। यदि तुम जानते हो कि कोई राख में परिवर्तित होने वाला है, तो तुम फिर कभी उनसे नाराज नहीं होगे और उनके प्रति सभी नकारात्मकता गायब हो जाएगी। याद रखो तुमने क्या किया है और अभी भी तुम्हें क्या करना है। मैं का वह असली नाम है जो कि निराकार है। यह हमारा प्रचीनतम नाम है और आत्मा का यह एक नाम तुम गहन ध्यान में सुन सकते हो। एक प्रार्थना सही राह पर ले चलने के लिए एक प्रार्थना है।

यह आवाहन है अग्नि के लिए। अग्नि, जिसका अर्थ मूलभूत निष्कलंक चेतना भी है। यह तुम्हारे अंदर वह आग है जो तुमसे सोचने का कार्य करवाती है और तुम्हें चलाती है। यह तुम्हें क्रोधित या विद्वेषपूर्ण बना सकती है या नकारात्मक भावनाओं को जन्म दे सकती है। हम प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ‘मेरे अंदर यह अग्नि मुझे सही मार्ग पर लेकर चले। मेरे विचार सद्विचार हों? मैं किसी का बुरा न सोचूं’। अग्नि के पास शुद्ध करने का गुण है। यदि कहीं ऐसा कुछ है जिसके लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए, तो वह प्रार्थना मेरे अंदर की इस अग्नि को सही दिशा मिले इसके लिए होनी चाहिए और प्रार्थना करो कि उत्कृष्ट विचार मुझे सही दिशा की ओर ले चलें। सत्य पर स्वर्ण का आवरण है। जीवन में जो भी आकर्षक है उसका रस लो, परंतु अनासक्ति के बोध के साथ क्योंकि उसके पार ही सत्य स्थित है। सर्वशक्तिमान प्रभु से प्रार्थना करो कि तुम्हें उस पार का मार्ग दिखाएं। अंतत: यह दैवीय चेतना ही है जो अग्नि की तरह अतीत की समस्त मलिनताओं और पापों का नाश करती है। और जब ऐसा होता है तब हम शारीरिक रूप से स्वस्थ तथा आध्यात्मिक रूप से प्रफुल्लित महसूस करते हैं एवं हमारा व्यवहार सहज रूप से मधुर बन जाता है।