मन और आत्मा

श्रीराम शर्मा

जहां मन और आत्मा का एकीकरण होता है, जहां जीव का इच्छा रुचि एवं कार्य प्रणाली विश्वात्मा की इच्छा रुचि प्रणाली के अनुसार होती है, वहां अपार आनंद का स्रोत उमड़ता रहता है, पर जहां दोनों में विरोध होता है, जहां नाना प्रकार के अंतद्र्वंद चलते रहते हैं, वहां आत्मिक शांति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मन और अंत:करण के मेल अथवा एकता से ही आनंद प्राप्त हो सकता है । इस मेल अथवा एकता को एवं उसकी कार्य पद्धति को योग साधना प्रत्येक उच्च प्रवृत्तियों वाले साधक के जीवन का नित्य कर्म होना चाहिए। भारतीय संस्कृति के अनुसार सच्ची सुख-शांति का आधार योग साधना ही है। योग द्वारा सांसारिक संघर्षों से व्यथित मनुष्य अन्तर्मुखी होकर आत्मा के निकट बैठता है, तो उसे अमित शांति का अनुभव होता है। मनुष्य के मन का वस्तुत: कोई अस्तित्व नहीं है। वह आत्मा का ही एक उपकरण औजार या यंत्र है। आत्मा की कार्य पद्धति को सुसंचालित करके चरितार्थ कर स्थूल रूप देने के लिए मन का अस्तित्व है। इसका वास्तविक कार्य है कि आत्मा की इच्छा एवं रुचि के अनुसार विचारधारा एवं कार्यप्रणाली को अपनावे।

इस उचित एवं स्वाभाविक मार्ग पर यदि मन की यात्रा चलती रहे, तो मानव प्राणी जीवन सच्चे सुख का रसास्वादन करता है। जो व्यक्ति केवल बाह्य कर्मकांड कर लेने, माला फेरने, पूजा-पाठ करने से पुण्य मान लेते है और सद्गति की आशा करते हैं वे स्वयं अपने को धोखा देते हैं। इन ऊपरी क्रियाओं से तभी कुछ फल प्राप्त हो सकता है जबकि कुछ मानसिक परिवर्तन हो और हमारा मन खोटे काम से श्रेष्ठ कर्मों की ओर जुड़ गया हो। ऐसा होने से पाप कर्म स्वयं ही बंद हो जाएंगे और मनुष्य सदाचारी बनकर शुभकर्मों की ओर प्रेरित हो जाएगा। कठिनाइयां एक ऐसी खराद की तरह है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराश कर चमका दिया करती हंै। कठिनाइयों से लडऩे और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्म बल का विकास होता है, वह एक अमूल्य संपत्ति होती है, जिसको पाकर मनुष्य को अपार संतोष होता है।

कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन मे ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है, जो पथ के समस्त झाड़-झंखाड़ों को काट कर दूर कर देती है। अनन्य भाव से परमात्मा की उपासना शरणागति का मुख्य आधार है। ईश्वर के समीप बैठने से वैसे ही दिव्यता उपासक को भी प्राप्त होती है साथ ही उसके पाप, संताप गलकर नष्ट होने लगते हैं। नित्य निरंतर यह अभ्यास चलाने से ही जीवन में वह शुद्धता आ पाती है, जो पूर्ण शरणागति के लिए आवश्यक होती है। हमें समाज का नया निर्माण करने के लिए प्रचलित अवांछनीय प्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा और परंपराओं को प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न करना पड़ेगा, तभी हम अपने समाज को देवोपम और शांति का कंेद्र बिंदु बना सकने में समर्थ हो सकेंगे। जीवात्मा सत्य है, शिव है और सुंदरता से युक्त भी।

उसी के शक्ति एवं प्रकाश की छाया से बहिर्जगत यथार्थ लगता है। सत्य और शिव से, सुंदरता से युक्त जीवात्मा की प्रतिच्छाया मात्र से यह संसार इतना यथार्थ सुंदर एवं आनंददायक लगता है, फिर उसका शाश्वत स्वरूप कितना सुंदर आनंद देने वाला होगा, इसकी कल्पना मात्र से मन अनिवर्चनीय आनंद से पुलकित हो उठता है।