इक तेरी, इक मेरी कांग्रेस

कांग्रेस के अपने ही सवाल पीछा नहीं छोड़ रहे, तो पार्टी चुनावी प्रश्रों पर अपना मत कैसे जुटाएगी। यहां कांग्रेस की जीती हुई सीटें क्यों निराश हुईं, सियासत ने तो बंद दरवाजों को हंसते देखा है। आश्चर्य है कि छह घंटियों के शोर से भी कांग्रेस के कान नहीं खुले, तो अब नया शोर कान फाडऩे पर उतारू है। सियासत के अपने दुर्ग और वीरभद्र की विरासत की प्रतीक मानी गईं प्रतिभा सिंह जो कह रही हैं, उसे प्रदेश तो सुन रहा है- कांग्रेस सुने या न सुने। पिछली संसद में जब प्रतिभा सिंह सांसद बनीं, तो कांग्रेस का रुतबा भाजपा की सत्ता को परेशान कर गया। तब अगर पार्टी ने हिमाचल में जीत की प्रतिभा को अंगीकार किया तो आज प्रतिभा सिंह की शिकायत को सुनें या वकालत को चुनें। मोहतरमा प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं, बेटे विक्रमादित्य सिंह सुक्खू सरकार में काबीना मंत्री हैं, लेकिन राजनीति के रहट को अपने ही कुएं के पानी से शिकायत है। नाराजगी का आलम यह कि जिस मंडी संसदीय सीट पर कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा था, वहां पूर्व सांसद चुनाव के विरोध में अंगद का पांव दिखा रही हैं। वह एक पूर्व सांसद की हैसियत से कहीं आगे निकलकर बतौर पार्टी अध्यक्ष के रूप में जो कह रही हैं, वहां अनेकों कठघरे खाली हैं। इन सर्द हवाओं को छू कर देखना, भीतर से जलाने की अदाकारी छुपी है। हिमाचल कांग्रेस बनाम हिमाचल सरकार के बीच अहम और वहम के युद्ध अभी शांत नहीं हैं। प्रतिभा सिंह न जाने कितने ठीकरे फोड़ रही हैं, ‘कांग्रेस की आशाओं पे अपनों की शामत, इस हुस्न को आवारगी ने बर्बाद कर दिया’ दरअसल स्थिति यह है कि न पार्टी को वांछित का पता और न ही अवांछित से गिला। परिदृश्य में चारों तरफ कई लंकाएं जल रही हैं, फिर भी कहीं किसी को धुएं से शिकायत नहीं। ऐसे में क्यों न माना जाए कि सत्ता और संगठन के बीच एक तेरी-एक मेरी कांग्रेस के द्वंद्व अब जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहां सिर्फ फिरौतियां मांगी जा रही हैं। प्रतिभा सिंह की भाषा में भले ही कोई नया उच्चारण नहीं, लेकिन आरोपों की बुनाई में कई जाल हैं। किसी राज्य की पार्टी अध्यक्ष के ताजा बयानों के बगल में छुरी अगर नहीं देखी जाएगी, तो हलाल होने का यह मर्ज कांग्रेस से बहुत कुछ छीन सकता है। इसके बरअक्स भाजपा की ओर से न केवल लोकसभा की चार सीटों की तैयारी चल रही है, बल्कि उपचुनाव के महाभारत की पटकथा भी लिखी जा रही है।

कमोबेश जिन आरोपों की बुनियाद पर कांग्रेस के उम्मीदवार को राज्यसभा चुनाव में शिकस्त मिली है, उन्हीं पर प्रदेशाध्यक्ष अगर तलवार भांज रही हैं, तो विपक्ष की जरूरत है कहां। क्या वाकई इस बार सत्ता का आलम मगरूर है या गफलत में वीरभद्र सिंह परिवार भयानक गलती को अंजाम दे रहा है। कहना न होगा कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व राजस्थान व मध्यप्रदेश की तरह किंकत्र्तव्यविमूढ़ की स्थिति में अपनी ही संभावनाओं पर कुठाराघात करने पर तुला है। यह भी तब जब ऐसे मसलों पर समन्वय समिति का गठन हो चुका है। आश्चर्य यह कि समन्वय समिति का खिलौना भी यहां अपनी बैटरी के बिना दिखाई दे रहा है। कांग्रेस अपने संकट को जिस तरह हल कर रही है, उससे विकराल होती परिस्थिति का एक रूप अगर प्रतिभा सिंह अख्तियार कर रही हंै, तो आगामी संघर्ष में लोकसभा व उपचुनावों में न जाने पार्टी के भीतर कितनी लंकाएं जल सकती हैं। ऐसा नहीं कि भाजपा के भीतर उथल-पुथल नहीं है, फिर भी वहां विरोध को बेजुबान करने का कौशल व अनुशासन है। यहां सत्ता के लाभ में पार्टी के भीतर कई नियुक्तियों की दीवारें खड़ी हो चुकी हैं। जिस पार्टी को अपने छह विधायक खोने का गम नहीं या जहां राज्यसभा की सीट हारने पर कोई मंथन नहीं, वहां शायद ही प्रतिभा सिंह के वक्तव्य को गंभीरता से लिया जाए। आश्चर्य यह कि छह बागी पार्टीजनों का सियासी करियर तबाह करते-करते सत्तारूढ़ पार्टी अपने ही लोगों की कतरब्यौंत में जुट गई है। बगावत और विध्वंस की मनोवृत्ति में आए फैसलों के बाद पार्टी की छिपकलियां चुनावों में अपनी दावेदारी दिखा रही हंै। धर्मशाला नगर निगम के तमाम कांग्रेसी पार्षद उपचुनाव के प्रत्याशी बने बैठे हैं, तो पार्टी को अपनी तासीर का वजन भांप लेना चाहिए, वरना टूट फूट की शब्दावली अब शिखर को भी जमीं सुंघाने की फितरत में कहीं हावी न हो जाए।