जेब फिर भी खाली

अवांछित घटनाक्रम की वांछित राजनीति ने अब हिमाचल की नीयत में अस्थिर सरकारों का खोट भर दिया है। अस्थिरता न होती तो जनादेश की ताकत से राज्यसभा में कांग्रेस का एक और सांसद प्रवेश कर गया होता, मगर इस ताजपोशी के सबूत खूंखार हो रहे हैं। कांग्रेस की जेब जहां लुटी है वहां जनादेश की दौलत भी लुटी है, लेकिन हम दोनों पाटों में सियासत का पुण्य-पाप नहीं चुन सकते। अगर भाजपा की हालत व देश की राजनीति पर पूर्व केंद्रीय मंत्री व पार्टी के वरिष्ठ नेता शांता कुमार की आंखें भर रही हैं, तो यह मौजूदा दौर की तनहाई में गुम होते सिद्धांतों की अंतिम फरियाद होगी। हम किस जश्न में शरीक हों। कांग्रेस से किनारा कर गए छह विधायकों, उनके साथ पार्टी द्वारा किए गए कथित सुलूक या भाजपा में शामिल हो गए नौ पूर्व विधायकों की नई पारी पर एतबार करें। जो भी हो सियासत का मुलम्मा उतर रहा है। पल भर के लिए हम गिन लेते हैं कि किसी एक के कदम से दूसरी पार्टी को लाभ हो गया, लेकिन अगले ही पल घाटे के समीकरण देख लेते हैं। आसमान में जो उड़ रहे वे कटी पतंगें, हमारी डोर से कैसे जुड़ पाएंगी। कौन सा वादा और कौन सा विवाद इस कशमकश में जीत पाएगा, यहां चारों ओर रस्सियों से बंधे मजमून नजर आते हैं। चैतन्य शर्मा का आगमन राकेश कालिया का भाजपा से प्रस्थान करवा रहा है तो इस आंच को समझना इतना भी आसान नहीं। होशियार सिंह ने पांव जबसे भाजपा की धरती पर रखा है, रमेश धवाला की चाल बदल गई है। कुटलैहड़ में देवेंद्र भुट्टो को पार्टी में देखते ही पूर्व मंत्री वीरेंद्र कंवर का कारवां असहज, तो बड़सर से इंद्रदत्त लखनपाल का पाला बदलते ही भाजपा के कंकाल भी कदमताल कर रहे हैं।

बेचैनियों के समुद्र में, लोकसभा चुनाव की गोताखोरी अगर कल कहीं कांगड़ा का टिकट सुधीर शर्मा को सौंप देती है, तो भाजपा की जेब भरेगी या पार्टी के नेताओं की खाली हो जाएगी। जाहिर तौर पर इन नौ पूर्व विधायकों का भाजपा में आगमन इतना भी सरल व तरल नहीं कि एकदम पार्टी के अनुशासन में समा जाएगा। दूसरी ओर प्रत्यक्ष रूप में कांग्रेस की जेब खाली हुई है, तो इस चोरी की वजह पार्टी की सीनाजोरी भी है। कांग्रेस ने एक बार फिर साबित किया कि यह पार्टी अपने पांव कुल्हाड़ी मारने की अभ्यस्त हो चुकी है। सारे घटनाक्रम की जड़ में भाजपा की खाद लगी, तो इसके कारण कांग्रेस में ही मौजूद रहे। अफसोस मनाने के लिए अब जनता को एकमात्र सहारा उपचुनाव है। आश्चर्य यह कि यह सब कुछ सरकार के पहरावे और राज्य के खर्च से हो रहा है। अभी यह समझा नहीं जा रहा कि कांग्रेस के घर में आग लगी कैसे। कम से कम जिस वजूद को सौंपकर हिमाचल की जनता को अगले पांच साल की आशाएं थीं, वे कहीं अपने ही घाव को सहलाती व कराहती हुई प्रतीत हो रही हैं। सरकार की सारी मेहनत अब राज्य के बजाय खुद की सुरक्षा में लगेगी। मंत्रिमंडल की उप समिति को अब अपने राजनीतिक समीकरण बचाने और बनाने हैं। उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्रिहोत्री की अध्यक्षता में अब सरकार और सत्ता की चारदीवारी की जिम्मेदारी सिद्ध करती है कि आइंदा एकछत्र साम्राज्य नहीं चलेगा और न ही ऐसी परिस्थिति से निपटने के लिए कोई और हस्ती परवान चढ़ सकती थी। जाहिर तौर पर सत्ता के समीकरण बदल चुके और इम्तिहान के प्रश्र पत्र भी। पिछले चुनाव का एक अलग हिसाब था, अब चुनाव के अर्थ, रहस्य और गणित बदल चुके हैं।

कांग्रेस जाहिर तौर पर मुकेश जैसे अनुभवी, संतुलित व स्वीकार्य व्यक्ति की देखरेख में बहुत कुछ बचा सकती है। देखना यह होगा कि कैबिनेट की उप कमेटी स्पष्टता से कितना कह पाती है और इसके निष्कर्षों व निर्देशों की पालना में पार्टी व सरकार किस प्रकार समन्वित रूप से चल पाती है। फिलहाल कांग्रेस को अपने जमे जमाए, अनुभवी व क्षमतावान नेताओं के स्थान पर नए चेहरे खोज कर लाने की चुनौती रहेगी। हिमाचल के तमाम नेता तथा दोनों पार्टियां अपने-अपने गिरेबां में झांकना चाहती हैं, तो गौर करें कि वयोवृद्ध शांता कुमार आखिर कह क्या रहे हैं।