सियासी भाषा का मनोविज्ञान

हिमाचल में कांग्रेस का नया युग, बीते कल से मुकाबला कर रहा है। जाहिर है भाषण और भाषा सडक़ की सभ्यता में नए उच्चारण तक पहुंच गई है या राजनीति का मनोविज्ञान अब बोलने की नई परिभाषा है। आगामी लोकसभा चुनाव की फांस में सरकार, सत्ता और कांग्रेस के बीच नए अफसाने जन्म ले रहे हैं, तो कमोबेश भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने विपक्ष की कुंडलियों में अपने अर्थ की शब्दावली बैठा दी है। अब भाषा की संगत भी सोशल मीडिया की तरह बेपरवाह, नुकीली व प्रहारक बन गई है। यह सियासत का नया दौर है और जाहिर तौर पर पिछले एक दशक के आरोहण में हमने गिरते हुए शब्द, झगड़ते हुए अर्थ तथा मरती हुई भाषायी मर्यादा देखी है। अब बात अगर मेंढक तक पहुंच जाएगी, तो भाषायी उछलकूद कोहराम तो मचाएगी ही। बहरहाल हिमाचल में जनता के लिए और जनता के सामने कसूरवार तो भाषा ही है। यह पहले पक्ष-विपक्ष में गिर रही थी, लेकिन अब अपने ही भितरघात को शब्दों के युद्ध में पहचान रही है। जाहिर है हम हिमाचली जिन बोलियों में स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं, वहां शब्दों का प्रचलन अपने आप में माधुर्य की संस्कृति में अभिव्यक्त होता रहा है। बेशक व्यंग्य का पुट, मुहावरों की गहराई और अनौपचारिक संवाद में हिमाचली समाज अपनी कठिनाइयों की सहजता में चलता रहा है, लेकिन अब राजनीति के सार्वजनिक मंच ने हमसे भाषायी संस्कार और संतुलन छीन लिया है। यह काफी हद तक राजनीति के आरपार होने लगा और इसीलिए इसके अक्स में स्थानीय निकाय तक के चुनाव ने सामाजिक गली को गाली बना दिया। कांग्रेस के बीच जिस हिसाब से घटनाक्रम रहे हैं, वहां एक नए युग की परिकल्पना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

ऐसे में असमंजस के सारे कारण जनता को अपने राज्य के नसीब पर संदेह करने का अवसर दे रहे हैं। एक ही पार्टी, एक ही सत्ता के बीच शह और मात का खेल अगर सार्वजनिक मंच पर अभिव्यक्ति की सीमा से बाहर भाषा के उच्चारण को गिरा रहा है, तो कहीं कमजोरियों के आलम में सिंह गर्जना का क्या तात्पर्य बचेगा। जो हुआ, नहीं होना चाहिए था, लेकिन जो अब लगातार हो रहा है, अवांछित व अप्रिय है। हम राजनीतिक कारणों से हिमाचल की भाषायी संस्कृति को गिराते रहेंगे, तो एक दिन यहां के फैसले सिर्फ मौखिक गालियों के सहारे ही जन्म लेंगे। मंचीय युद्ध की पैमाइश में भले ही कोई पक्ष आगे दिखाई दे, लेकिन यहां हर कदम की एक भाषा है। बागी विधायकों के लिए न्याय की भाषा क्या सुनाएगी या सीपीएस पर सरकार को कानून के शब्द क्या बताएंगे, इसके ऊपर सारा दारोमदार टिका है, वरना सत्ता के प्रभाव से अंगुली मरोडऩे का भाषायी अर्थ कौन नहीं जानता। किसी विधायक के पिता या किसी विधायक पर एफआईआर हो जाने की भाषा में गुरूर हो सकता है, लेकिन जमानत मिलने में अधिकारों की भाषा न•ार आती है। यही अधिकारों की भाषा मतदाता के काम आएगी और इसीलिए वह कभी दिल्ली से अपने प्रधानमंत्री की भाषा में सुन रहा है कि हिमाचल में कहां फोरलेन, कहां सुरंग और कहां नेशनल हाईवे बन रहे हैं। वह ऊना से निकलती नई रेलगाडिय़ों की भाषा में सशक्त होते अनुराग ठाकुर, तो हिमाचल के मंचों से निकलती मुख्यमंत्री की वाणी में मजबूत होते विधायकों को देख रहा है। मतदाता का अधिकार अतीत में कांग्रेस को सत्ता में जहां ले आया, वहां की भाषा अब उसकी समझ से परे है, लेकिन एक नया अधिकार कल उसके हाथ को पुन: सशक्त करेगा। मतदाता के चारों ओर चुनाव की भाषा और चुनाव की भाषा में तमाम सरकारें अगर अर्थपूर्ण हो सकती हैं, तो ये हर समय जनता की भाषा क्यों नहीं बोल पातीं। जनता की भाषा में चूल्हा, रोजगार, व्यापार तथा जीवन के सारे हालात बोलते हैं, लेकिन अब सरकारें सिर्फ अपनी भाषा में कहती और अपनी ही भाषा में सुनने लगी हैं। यहां भाषा का अक्खड़पन कतई नहीं हो सकता।