श्री चैतन्य महाप्रभु जयंती

चैतन्य महाप्रभु का जन्म हिंदू कैलेंडर के अनुसार विक्रम संवत सन् 1542 में फाल्गुन पूर्णिमा यानी होलिकादहन के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, इस पूर्णिमा को गौरव पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं और यह चैतन्य महाप्रभु की जयंती के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण नाम संकीर्तन का आरंभ करने वाले गौरांग चैतन्य महाप्रभु की जयंती 25 मार्च को है। इनका बचपन का नाम निमाई था, परंतु आज भी लोग इन्हें श्री गौर हरि, श्री गौर नारायण, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, श्री गौरांग आदि नामों से याद करते हुए हरिनाम संकीर्तन करते हैं। बचपन की अनेक भक्तिपूर्ण लीलाएं करते हुए श्री चैतन्य ने अपनी शिक्षा शुरू की, परंतु पिता ने अपने बड़े बेटे विश्वरूप की तरह इनके भी संन्यासी बन जाने के भय से इनकी पढ़ाई छुड़वा दी, परंतु इनकी जिद्द को देखते हुए इनकी पढ़ाई उन्हें फिर शुरू करवानी पड़ी। पिता की मृत्यु के पश्चात घर की आर्थिक स्थिति के बारे में जब माता ने इन्हें प्यार से समझाया, तो इन्होंने कहा कि जिस विश्वनियंता की कृपा से सभी प्राणी जीवन धारण करते हैं वही हमारी भी व्यवस्था करेंगे। माता के आर्थिक संकट को मिटाने के लिए उन्होंने चतुष्पाठी खोली, जिसमें पढऩे वालों की संख्या निरंतर बढऩे लगी। पिता के श्राद्ध के लिए वह जब गया जी गए, तो वहां उन्होंने ‘पादपदम’ की महिमा सुनी और प्रभु चरणों के दर्शन करके चैतन्य महाप्रभु भावुक हो गए और उनके मुख से शब्द भी नहीं निकले।

बाह्यज्ञान के पश्चात उन्होंने ईश्वरपुरी के पास जाकर दशाक्षरी मंत्र की दीक्षा ली तथा प्रभु से प्रार्थना की कि मैंने पुरी जी को अपना प्रभु समझकर अपना शरीर अर्पित किया है, अब मुझ पर ऐसी कृपा करें कि मैं कृष्ण प्रेम के सागर में गोते लगा सकूं। वह प्रभु प्रेम की मस्ती में ‘श्री कृष्ण, श्री कृष्ण, मेरे प्राणाधार, श्री हरि तुम कहां हो’ पुकारते हुए कीर्तन करने लगे। उनके बहुत से शिष्य बन गए जो मिलकर ‘हरि हरये नम: गोपाल गोबिंद, राम श्री मधुसूदन’ का संकीर्तन करते हुए प्रभु को ढूंढने लगे। उनके व्यक्तित्व का लोगों पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि बहुत से अद्वैत वेदांती व संन्यासी भी उन के संग से कृष्ण प्रेमी बन गए। श्री चैतन्य महाप्रभु जी के जीवन का लक्ष्य लोगों में भगवदभक्ति और भगवतनाम का प्रचार करना था। वह सभी धर्मों का आदर करते थे। यह श्री राधाकृष्ण का सम्मिलित विग्रह हैं। कलियुग के युगधर्म श्री हरिनाम संकीर्तन को प्रदान करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्री नित्यानंद प्रभु श्री अद्वैत, श्री गदाधर, श्री वासु को गांव-गांव और शहर-शहर में जाकर श्री हरिनाम संकीर्तन का प्रचार करने की शिक्षा दी। विश्व भर में श्री हरिनाम संकीर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु की ही आचरण युक्त देन है।