इवेंट बनती शादियों के दबाव ने अभिभावकों को मानसिक रोगी बनाया

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

इस लेख का भावार्थ समझने के लिए इवेंट बनाम शादी भव्य समारोह का अंतर समझना जरूरी है। पूर्व कालखंडों में परिवार, निकटतम मित्र एवं पड़ोसी, धार्मिक समभाव एवं एकरसता सद्भावना से ओत-प्रोत संगठित समूह में धार्मिक उत्सवों, पारंपरिक त्योहारों एवं सांस्कृतिक आयोजनों पर पूरे जोश से बढ़ चढक़र हिस्सा लेकर संपूर्ण अपनेपन से मनाते थे। जिससे परस्पर संबंध इतने मजबूत हो जाते थे कि व्यक्तिगत आयोजन यानी जन्मोत्सव, विवाहोत्सव, नामकरण समारोह, गृह प्रवेश आयोजन, मुंडन संस्कार, यज्ञोपवीत आयोजन, वार्षिक वर्षगांठ उत्सव आदि सभी मिलजुल कर मनाते थे। शादी की तैयारियां तो हफ्तों पहले ही शुरू हो जाती थी। मंगनी, शगुन, चुनरी रस्म, तेल रस्म, टीका रस्म, मेहंदी रस्म, हल्दी रस्म आदि कार्यक्रम शादी से पूर्व ही शुरू हो जाते थे। जहां परिवार के सदस्यों के साथ-साथ संबंधी, पड़ोसी, मित्रगण, यहां तक कि मनमुटाव भुलाकर गिले शिकवे दूर कर नाराज संपर्क सूत्र भी पूर्ण उत्साह से शामिल होकर शादी को एक यादगार समारोह बनाकर रख देते थे। पूर्व कालखंड में तो गली कूचों, मुहल्लों में दिन में बताशे एवं लड्डू बांटकर रात के स्त्री संगीत के आयोजन का निमंत्रण भी दिया जाता था, जहां स्त्रियां तरह-तरह के स्वांग बना नाटकीय भाव भंगिमाओं के साथ ढोलकी की ताल पर लोकगीत गाती थीं।

घुड़चढ़ी एवं जयमाला के समय संबंधियों की मिलनी, वर पक्ष द्वारा सेहरा पढऩा, ढ़ोल बाजों की थाप पर भंगड़ा डालना एक अलग नजारा ही दर्शाता था, सिठनियों की आड़ में वरपक्ष का ताना मार उपहास बनाना भी आम रिवाज था। जिसका बुरा नही मनाया जाता था। दोनो पक्ष इन तानों का एक सा आनंद मानते थे। फेरों उपरांत विदाई के समय केवल परिवार वाले ही नहीं सभी उपस्थितगण आंखे नम करते व दुल्हन को ससुराल में व्यवहार के आचरण की शिक्षा देकर विदा करते थे। लबोलुआब यह कि शादी की रस्में कुछ इस तरह निभाई जाती थी कि यह सब एक यादगार बन जाते थे। वर एवं वधु इतने भारी समाज में बड़ों का सम्मान बढ़ाने हेतु सदैव प्रयासरत रहते एवं कोई अनैतिक कृत्य न करते, जिससे दोनों परिवारों की जगहंसाई हो अथवा प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे। तब शादियां भी अधिकतर सफल रहती थी। वर्तमान में इन सबके विपरीत पावन शादी की रस्मों को महज औपचारिकताओं में तबदील करके एक इवेंट अर्थात एक फार्मेल्टी मात्र बना दिया गया है। अव्वल तो लडक़ा लडक़ी प्रेम विवाह को अधिमान देकर अपने अभिभावकों के चयन अधिकार को ही चुनौती देकर उनके रिश्तों की गरिमा को ठेस पहुंचा मानसिक तनाव देने की शुरुआत करते हैं।

उनके संजोए सपनों का मजाक बनाकर रख देते हैं। समाज में बच्चों की शादी की खुशी सांझाी करने की बजाय बच्चों के अनैतिक प्रसंगों को छुपाने के प्रयत्न में अभिभावकों की मनोदशा अवसाद की सीमा तक जा पहुंचती है। मंगनी, शगुन, देख दिखाई की रस्में तो अप्रासंगिक ही हो जाती हैं। सीधा शादी की तारीख ही फिक्स की जाती है। ताकि बच्चे कहीं कोर्ट मैरिज ही न कर लें या घर से ही न भाग जाएं। इस डर से आनन फानन में न ढंग से ग्रहों का मिलान कराया जाता है, न पारिवारिक पृष्ठभूमि की जांच पड़ताल की जाती है और न ही शुभ मुहूर्त निकलवाया जाता है। दोनों पक्षों को जो तारीख अच्छी लगे वही निश्चित कर ली जाती है। शादी औपचारिकता वश पैलसों में संपन्न की जाती है, खान-पान कैटरिंग ठेकेदारों के हवाले होता है। जरूरी रस्में भी निभाई नहीं महज निपटाई ही जाती हैं। जैसे तैसे शादी संपन्न कराई जाती है। पहले वाला पवित्र पावन मिलन व धार्मिक गठबंधन नहीं है।