दर्द भरे जिगर की आवाज…

इस देश के लोगों को उन कतारों में खड़े होने की आदत हो गई है, जो आगे नहीं सरकती। वैसे कतारों में खड़े होने की आदत यहां है भी नहीं। कतार तोड़ कर आगे बढ़ जाने की धक्कमपेल है। धक्का-मुक्की यहां शूरवीरता मानी जाती है और चोर दरवाजे खोल कर गद्दी पर आसीन हो जाना नए युग का धर्म। फिर जो आसीन हो गया, वह नीचे उतरता कहां है। संन्यास लेने का वक्त आ जाए, तो भी देश की चिंता उसे इतना सताती है कि उसका संन्यास मुल्तवी होता जाता है। यहां त्याग और तपस्या एक मुखौटा बन गई है, और जीवन जीने का उपदेश देना एक रिवाज। जो जिंदगी जी नहीं पाए, वे अपनी असफलता को रण छोडऩा नहीं, अपनी त्याग भावना का प्रतीक मानते हैं। कला-संस्कृति की बात करने वाली उवाच प्रशस्ति के तराजुओं में तोल कर हर धान एक ही कीमत बिकता है। वह कीमत है, थोथा चना बाजे घना। बड़े आदमी के साथ फोटो खिंचवा कर फेसबुक से लेकर सांस्कृतिक समाचारों में घुसपैठ कर जाना एक ऐसा प्रिय शगुन है कि जिसे हर स्थापना का भी तलाशना है। यह स्थापना कहीं भी हो सकती है, केवल लेखन ही नहीं, खेल के मैदान में, खोज तलाश के अन्वेषण में और ऊंचे स्वर में चिल्ला कर उनकी ऐसी उपलब्धियों के चीखो-पुकार में जो कभी आपके पास फटकी नहीं। लेकिन उनकी प्राप्ति की घोषणा करने में आपने कभी कमी नहीं की। वैसे जब आर्थिक प्रगति के दावे हों तो लगता है ऊंची अटारियों वालों के घर और भी ऊंचे हो गए और गूदड़ बस्तियों के क्रंदन को कोई सुनता नहीं। संघर्ष, प्रगति और निरंतर चलते रहना कितने अच्छे शब्द लगते हैं, लेकिन उनका खोखलापन अजनबी नहीं लगता। क्योंकि यहां संघर्ष का अर्थ है रेंगना, प्रगति का अर्थ खोखले आंकड़ों का मायाजाल और निरंतर चलते रहने का अर्थ है एक ही वृत्त में निरंतर गोलाकार घूमते रहना। यहां रोज परिभाषाएं बदल जाती हैं।

यहां समाजवाद को उल्टे रास्ते से पकडऩे का प्रयास शुरू हो गया। पहले कहते थे निर्धन और वंचित को रोजी, रोजगार और धनियों के अनावश्यक शोषण पर रोक ही नए समाज का निर्माण करेगी। लेकिन बंधु, समाज का निर्माण तो हुआ नहीं, बल्कि अरबपतियों के धन बढ़ाने का रिकार्ड बनने लगा, नई ऊंचाइयां मिलने लगीं। लीजिये सब पुराने रास्ते दरकिनार हो गए और सार्वजनिक क्षेत्र को नौकरशाही का पुलिंदा कह कर नकारा जाने लगा, अब उसके स्थान पर निजी क्षेत्र को तरक्की का जामिन बना दिया गया, प्रगति दर के बढऩे का ऊंचा मीनार बता दिया गया। आज लाखों हाथ नौकरी मांगते हैं, टूटे हुए हाथों को अपना हाथ जगन्नाथ का उपदेश मिल गया। योजनाबद्ध आर्थिक विकास की पंचवर्षीय योजना का आसरा लेकर आर्थिक विकास की दर वहां पहुंचा देनी थी, जहां अर्थव्यवस्था स्वत: स्फूर्त कहला देती थी। लेकिन यह कैसा स्वत: स्फूर्त कि देश का उत्पाद चौबीस प्रतिशत घट गया और आर्थिक विकास दर शून्य से भी सात प्रतिशत नीचे गिर कर शर्मिन्दा हो गई। इन योजनाओं को बनाने वाला योजना आयोग सफेद हाथी करार दे दिया गया। अब उसकी जगह प्रगट हुआ नीति आयोग, जिसकी नीति की तलाश हो रही है और आयोग के सदस्य किंकत्र्तव्यविमूढ़ हैं कि नई योजना बनाएं या इसे भी निजी क्षेत्र की सरदारी के हवाले कर दें? बड़े आंकड़ों की इस दुनिया में महामारी में हर देने वाली दवाइयों की घोषणा होती है तो लोग उसकी खाली और प्रयुक्त शीशियों की तलाश में जुट जाते हैं। दवा के ऐसे पाऊडर बना इनमें भरे जाते हैं, जो बुखार के भरोसे छोड़ उस पर नित्य नई विजय प्राप्त कर लेने की घोषणा करते हैं। लेकिन यह सब चलता ही रहता है। लोगों को तो अच्छे दिनों के नाम पर यह सब भुगतने की आदत हो गई है।

सुरेश सेठ

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