सत्य तो परमात्मा है

श्रीराम शर्मा

यह सांसारिक जीवन सत्य नहीं है। सत्य तो परमात्मा है, हमारे अंदर बैठी हुई साक्षात ईश्वर स्वरूप आत्मा है, वास्तविक उन्नति तो आत्मिक उन्नति है। इसी उन्नति की ओर हमारी प्रवृत्ति बढ़े, इसी में हमारा सुख-दु:ख हो। यही हमारा लक्ष्य रहा है। अपने हास के इतिहास में भी भारत ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने ऊंचे आदर्शों को प्रथम स्थान दिया है। मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि असत्य अच्छा नहीं फिर भी वह उसी में आसक्त रहता है। वह अपने दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकता। वह अपने दुर्गुणों को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होता। इसका कारण क्या है?

अविद्या रहस्यमयी है। बुरे संस्कारों के कार्य रहस्यमय है। सत्संग तथा गुरुसेवा के द्वारा इस मोह को नष्ट किया जा सकता है। सभ्यता का आचरण वह प्रणाली है, जिससे मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करता है। कर्तव्यपालन करने का तात्पर्य है नीति का पालन करने का अर्थ है अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना। ऐसा करने से हम अपने आपको पहचानते हैं। यही सभ्यता है और इससे विरुद्ध आचरण करना असभ्यता है। हम भले ही अपने दुष्कर्मों को भूल जाएं, पर ‘कर्म’ छोटे से छोटे और बुरे से बुरे किसी भी कार्य को नहीं भूलता और समय पर उसका अवश्य भोग होता है।

इसलिए यदि इस तथ्य को हम समझकर ग्रहण करें तो अनेक बुरे कार्य हम से आप ही छूट जाएंगे और इस प्रकार जीवन बहुत सुधर जाएगा। आज का युग खूब कमाओ, आवश्यकताएं बढ़ाओं, मजा उड़ाओं की भ्रांत धारणा में लगा है और सुख को दु:खमय स्थानों में ढूंढ रहा है। उसकी संपत्ति बढ़ी है, अमरीका जैसे देशों में अनंत संपत्ति भरी पड़ी है। धन में सुख नहीं है, अतृप्ति है, मृगतृष्णा है। संसार में शक्ति की कमी नहीं, आराम और विलासिता की नाना वस्तुएं बन चुकी हैं, किंतु इसमें तनिक भी शांति या तृप्ति नहीं। जब तक कोई मनुष्य या राष्ट्र ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, तब तक उसे कोई स्थायी विचार का आधार नहीं मिलता।

अध्यात्म हमें एक दृढ़ आधार प्रदान करता है। अध्यात्मवादी जिस कार्य को हाथ में लेता है, वह दैवी शक्ति से स्वयं ही पूर्ण होता है। भौतिकवादी सांसारिक उद्योगों मे कार्य पूर्ण करना चाहता है, लेकिन ये कार्य पूरे होकर भी शांति नहीं देते। दूसरों के अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन का विशेष महत्त्व है। हमारी आत्म ध्वनि हमें सत्य के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती है। सत्य मार्ग से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही रवि तप रहा है और सत्य से ही वायु बह रही है। सत्य से ही सब स्थिर है।

सत्य का ग्रहण और पाप का परित्याग करने को हमें सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। आस्तिकता हमें ईश्वर पर श्रद्धा सिखाती है। हमें चाहिए कि ईश्वर को चार हाथ-पांव वाला प्राणी न समझें। ईश्वर एक तत्त्व है, उसी प्रकार जैसे वायु एक तत्त्व है। वैज्ञानिको ने वायु के अनेक उपभाग किए हैं। इसके हर एक भाग को भी स्थूल रूप से वायु ही कहेंगे।

इसी प्रकार एक तत्त्व, जो सर्वत्र ओत-प्रोत है, जो सब के भीतर है तथा जिसके भीतर सब कुछ है, वह परमेश्वर है। यह तत्त्व सर्वत्र है, सर्वत्र व्याप्त है। परमेश्वर हमारे ऋषि-मुनियों की सबसे बडी़ खोज है। इसलिए सदैव अपने अंदर सद्गुणों का ही अनुसरण करना चाहिए।