मतदाता खड़ा बाजार में

अबके फिर चुनाव घोषित हुए तो वे फिर आए। मुस्कुराते हुए ! गुनगुनाते हुए ! अपने चमचों के साथ बल खाते हुए। इतराते हुए। आते ही वे मेरे गले पड़े। मेरे पांव छूते पूछे, ‘और दाता! क्या हाल हैं? माफ करना! मुझे फिर आना पड़ा। सच कहूं ये चुनाव न हुआ करते तो बार बार तुम्हें कष्ट देने न आना पड़ता। पर चलो! इस बहाने तुम्हारे दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य तो मिल जाता है।’ ‘ठीक हूं महाराज!’ मैंने हाथ जोड़े। क्योंकि जानता हूं जिस तरह पानी में रहते मगर से बैर नहीं लेना चाहिए, उसी तरह लोकतंत्र में रहते हुए इनसे से तो क्या, इनके चमचों तक से भी बैर नहीं लेना चाहिए। ‘भाभी जी कैसी हैं? उनकी टांग की दर्द ठीक हुई कि नहीं?’ ‘अब कुछ कुछ ठीक है।’ ‘मेरी बिटिया रानी कैसी है?’ ‘ठीक है।’ ‘कौनसी क्लास में हो गई है?’ ‘दसवी में।’ ‘जब पिछली दफा आया था तो इतनी सी थी। जब कॉलेज जाएगी तो उसे साइकिल मेरी तरफ से। मेरी बिटिया पैदल कालेज जाए ऐसा नहीं हो सकता। और गाय कैसी है? दूध दे रही है न? अबके उसके क्या हुआ है? तुम्हारी तरह का बच्छा कि भाभी जैसी बच्छी?’ ‘दे रही है आपकी तरह जोर जबरदस्ती करने के बाद कभी कभी। बच्छी हुई थी। डंगर डॉक्टर की दवाई से मर गई।’ ‘बहुत दु:ख हुआ सुनकर! डॉक्टर का नाम बताओ। अभी उसे नक्सलवादी इलाके में ट्रांसफर करता हूं। भगवान! बच्छी की आत्मा को शांति प्रदान करें। चुनाव खत्म होते ही मैं बच्छी की आत्मा को भगवान के चरणों में जगह देने के लिए भगवान से सिफारिश करूंगा। तुम चिंता मत करना। रे कलुआ! नोट कर। और बेटा आजकल क्या कर रहा है?’ ‘कुछ नहीं! बीए करने के बाद आवारा घूम रहा है।’

‘कोई बात नहीं। अब मैं आ गया हूं न! मेरे जीतते ही उसे मेरे पास भेज देना। सरकारी नौकरी में लगवा दूंगा पर्चे दिए बिना ही, और भी कलक्टर! और हां! वह गांधी की बकरी की नस्ल की बकरी कहीं दिख नहीं रही? क्या तुमने वह बेच दी जिसके दूध की तुमने पिछली दफा मुझे चाय पिलाई थी। वाह! क्या दूध है उसका। दूध नहीं, अमृत है अमृत! पूरे पांच साल चुस्त दुरुस्त रहा। एक बार जो उसके दूध की चाय पी ले उसे पांच साल तक किसी का भी दूध पीने की जरूरत न पड़े। गांधी जी ऐसे ही बकरी नहीं पालते थे भोंदू! बकरी पालना गांधी होना है। बकरी में गांधी के सिद्धांत वास करते हैं। आज की तारीख में हर नेता बकरी हो सकता है, पर गांधी नहीं। आज हर नेता को बकरी होने की नहीं, गांधी होने की जरूरत है। मेरी तरह। पर बंधु! आज गांधी होना ही कौन चाहता है?’ हालांकि मैं अपने भीतर के जागरूक मतदाता को चुप कराने की बहुत कोशिश कर रहा था, पर एक वह था कि लाख दबाने के बाद भी दबी जुबान में मेरी जुबान पर आ बोल ही पड़ा, ‘देखो नेता जी! अब मैं कोरा मतदाता नहीं। मतदाता जागरूकता अभियान के चलते अब मैं जागरूक मतदाता हो गया हूं।’ ‘गुड! जागरूक होना हर मतदाता का धर्म है। अपने हित में उसे जागरूक होना ही चाहिए। इसीलिए तो हमने गधों को जागरूक करने के इरादे से गधा जागरूकता अभियान चलाया। क्योंकि हम जानते हैं कि गधे जागरूक तो देश जागरूक। इसीलिए तो हमने सियारों को जागरूक करने के इरादे से सियार जागरूकता अभियान चलाया।

क्योंकि हम जानते हैं कि सियार जागरूक तो देश जागरूक। इसीलिए तो हमने गिरगिटों को जागरूक करने के इरादे से गिरगिट जागरूकता अभियान चलाया। क्योंकि हम जानते हैं कि गिरगिट जागरूक तो देश जागरूक। हम तो चाहते हैं कि हमारे देश की चींटी भी जागरूक हो।’ ‘पर अबके मैं देश को वोट देना चाहता हूं। मेरा देश किधर है?’ ‘तुम्हारे सामने हाथ जोडक़र ही तो खड़ा है मेरे दाता! अपने दिव्य चक्षु खोलो मेरे परम पूजनीय! मैं ही तुम्हारा देश हूं मेरे भगवन! मोको कहां ढूंढे रे वोटर, मैं तो तेरे पास में! भगवान ने इस देश में सबको खास मकसद से भेजा है। जनता को वोट पाने के मकसद से और हमें देश चलाने के मकसद से। ये लो हर मतदाता पांच हजार!’ ‘पर…ये तो बिकना है’, मैंने कभी हाथ आगे तो कभी पीछे करते कहा तो वे मुस्कुराते बोले, ‘बिकने में ही जीवन की सार्थकता है वोटर! यहां जो बिकता नहीं वह पिटता है, क्या सडक़ में, क्या संसद में। कम हैं? तो पांच और रखो दाता! चुनाव कौन से रोज रोज होने हैं। हम पांच साल कमाते किसलिए हैं? चुनाव में अपने नारायणों में बांटने को ही तो।’

अशोक गौतम

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