सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर बढ़ती कांग्रेस

हिमाचल के राजनीतिक परिदृश्य और कांग्रेस के नेताओं के बयानों को देख कर अब यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस अब हिंदुत्व के मुद्दे पर नरमी दिखाती अग्रसर हो रही है…

कांग्रेस को सबसे बड़ी और पुरानी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल था। सबसे बड़ी होने का रुतबा अब भारतीय जनता पार्टी ने कब का कांग्रेस से छीन लिया है। उसको अब पुरानी पार्टी ही बन कर संतोष करना पड़ रहा है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर बड़ी गहनता के साथ देश पर शासन करते हुए राजनीतिक दुर्घटना को अंजाम दिया। बहुसंख्यक हिंदुओं को सहिष्णुता का तो हमेशा पाठ पढ़ाया गया, परंतु अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अधिमान दिया गया। हिंदू मतदाताओं ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, फिर भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी और अंततोगत्वा भारतीय जनता पार्टी में शरण ली और इस तरह भाजपा का अभ्युदय हिंदू धर्म की अस्मिता को लेकर और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण व आतंकवाद के विरोध में हुआ। अटल-आडवानी की युति ने भारतीय जनता पार्टी के रथ को हांकते हुए कई राज्यों में और केंद्र में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की। कांग्रेस भी इसी बीच इन राजनीतिक झंझावातों को झेलते हुए भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने में सफल होती नजर आई और सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दो बार केंद्र में सरकार बनाने में सफल हुई। 2014 के चुनावों में बड़े स्तर पर हुए घपले, भ्रष्टाचार तथा राम मंदिर निर्माण का मुद्दा इतना हावी रहा कि कांग्रेस को केंद्र में और राज्यों में जबरदस्त हार का मुंह देखना पड़ा और भाजपा केंद्र में सत्ता हथिया पाने में सफल रही।

अब जबकि 2024 के लोकसभा चुनावों की बिसात बिछ चुकी है तो कांग्रेस के कर्णधारों को भाजपा की राजनीति से यह बात साफ समझ में आ गई है कि भारत जैसे हिंदू बहुल वोटरों के देश में अब उनकी जनभावनाओं को नहीं दबाया जा सकता है। इसीलिए कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हिंदू हितैषी दिखने/दिखाने के लिए देश के मंदिरों की शरण में जाने लगे हंै और अपने को जनेऊधारी बताने लगे हैं। यहां तक कि राहुल की दोनों पद्यात्राओं में मंदिरों में आस्था, मठाधीशों और शंकराचार्यों से आशीर्वाद प्राप्त करना प्रमुखता के साथ ेएजेंडा में रहे। हिमाचल में भी कांग्रेस का शीर्ष राजनीतिक वीरभद्र परिवार अपने को सनातनी और ‘हिंदू होने पर गर्व है’ कहलाने में नहीं हिचकिचाया है। छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के बेटे और कांग्रेस सरकार में कैबिनेट मंत्री विक्रमादित्य ने 22 जनवरी को राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने का बाकायदा ऐलान कर दिया था। केन्द्रीय नेतृत्व की लाइन के विपरीत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद प्रतिभा सिंह ने भी आस्था जताई। सरकार के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों ने भी यही दोहराया कि वो भी हिंदू हैं, पर वो राम मंदिर दर्शनों को बाद में जाएंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिमाचल की राजनीति के शिखर पुरुष वीरभद्र सिंह एक अच्छे प्रशासक ही नहीं बल्कि सुलझे हुए चुनावी रणनीतिकार भी थे। पिछली सदी के आठवें दशक में देश-प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की आहट और उपस्थिति दर्ज होने लगी थी। उस समय हिमाचल के मुख्यमंत्री के तौर पर वीरभद्र सिंह प्रदेश की राजनीति में काबिज हो गए थे। वीरभद्र का शासन समय और भाजपा का आरोहण काल एक ही है।

वो धर्म को व्यक्ति की आस्था का विषय मानते थे। धर्म में उनकी गहरी आस्था थी। मंदिरों के जीर्णोद्धार का कार्य, विशेषकर धर्म पीठों और काष्ठ कुणी शैली के मंदिरों के रखरखाव में विशेष ध्यान देते थे। उनके राज में मंदिरों को सरकारी अधिनियम के तहत अधिगृहित करते हुए प्राप्त आय को जनकल्याण में लगाया गया। प्रदेश में 2007 को धर्मांतरण पर अधिनियम लाया गया और बूढ़े, गरीब, असहाय माता-पिता को भरण पोषण का कानून पारित हुआ। ये कल्याणकारी कदम ऐसे थे जिन्होंने प्रदेश के हिंदू बहुल वोटरों को कांग्रेस से जोड़े रखा था। परंतु वीरभद्र आरएसएस की हिंदुत्व वाली विचारधारा को सांप्रदायिकता फैलाने वाली व नफरत पैदा करने वाली मानते थे। समाज में ऐसे विघटनकारी संस्थान को एक समय में बैन भी किया था। इसके बावजूद वीरभद्र ने चार-पांच दशक पहले अपने प्रदेश में समझ लिया था कि बहुसंख्यकों की अनदेखी भारत जैसे देश के लिए और राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिए अहितकारी होगी। हिमाचल में हिंदू बहुल आबादी होने के नाते हिंदू वोटरों ने सदैव उनका साथ दिया। जब राम मंदिर के निर्माण की बात आई तो अयोध्या को वह प्रति वर्ष नियम के साथ दान भेजते रहे। यही कारण है कि राम मंदिर निर्माण सभा ने वीरभद्र परिवार को न्योता भेजा और उनके बेटे, कांग्रेस के युवा आइकॉन विक्रमादित्य ने अपने पिता का मान रखते हुए और स्वयं राम भगवान में आस्था जताते हुए अयोध्या का निमंत्रण स्वीकार किया। कांग्रेस जैसा इतना बड़ा राष्ट्रीय दल भाजपा से मुकाबिल होने के लिए अपने से छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ आज गठबंधन करने को मजबूर हुआ जा रहा है। हिमाचल प्रदेश में हिंदू धर्म को मानने वाले कुल जनसंख्या का 95.17 फीसदी हैं, जिनमें मुसलमान कुल आबादी का 2.18 फीसदी हैं और ईसाई कुल आबादी का 0.18 फीसदी हैं।

प्रदेश के 12 में से 11 जिलों में हिंदू बहुसंख्यक आबादी है। स्पष्ट है कि मुसलमान और ईसाई आबादी की संख्या इतनी भी नहीं है कि वे चुनावों के परिणामों को प्रभावित कर सकें। इनमें भी 56 प्रतिशत उच्च जाति के हैं जिनमें राजपूत 28 और ब्राह्मण 20 फीसदी हैं। वैश्य-क्षत्रिय 8 फीसदी बैठते हैं। शेष निचली जाति के हिंदू आते हैं जिनको सभी पार्टियां लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती हैं। हिमाचल के राजनीतिक परिदृश्य और कांग्रेस के नेताओं के बयानों को देख कर अब यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस अब हिंदुत्व के मुद्दे पर नरमी दिखाती अग्रसर हो रही है, पर इस ऐहतियात के साथ कि कहीं दूसरे वर्गों का वोटर उनसे छिटक न जाए। प्रदेश में हिंदू वोटर कांग्रेस के साथ जुड़े रहें, इसलिए भी अब यह रणनीति अपनाई जा रही है। इस मुद्दे पर प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह का बयान काबिलेगौर है। वह कहते हैं कि ‘भारतीय जनता पार्टी धर्म की राजनीति करती है। उनसे बड़े हिंदू हम हैं और यहां देव समाज के लोग रहते हैं। बेशक मध्य भारत में भारतीय जनता पार्टी धर्म की राजनीति करती आई है, मगर हिमाचल प्रदेश में हिंदुत्व कार्ड काम नहीं करेगा। हमें किसी से कोई सर्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं है।’

डा. देवेंद्र गुप्ता

स्वतंत्र लेखक