पर्यटन की आस्था

अभी नवरात्रि आगमन की सूचना भर ही थी कि श्रद्धालुओं ने ज्वालामुखी मंदिर की व्यवस्था को निकम्मा साबित कर दिया। सप्ताहांत पर्यटन की शुमारी में बड़े मंदिर के दर्शन छोटे हो गए, तो उस दावे को पलीता लग गया जो हिमाचल में पांच करोड़ पर्यटकों का इंतजार कर रहा है। हम कारणों को समझे बिना व्यवस्था-व्यवस्था चिल्लाते हैं, जबकि न तो योजना की परिकल्पना और न भविष्य की संरचना में कुछ हो रहा है। सारे पर्यटन की मुट्ठी में होटलों को भरने की कोशिश इस कद्र हावी है कि सत्ता का हर पक्ष भी सरकारी होटलों में अपना नाम देखता है। हर सत्ता की निगाह में मंदिर आए जरूर, लेकिन कमाई के भोजपत्र पर सरकारी घोषणाओं का कब्जा होता रहा। मंदिर तब तक भवन थे, जब तक श्रद्धालु पर्यटक नहीं थे। अब वे पर्यटक ज्यादा, श्रद्धालु कम हैं। हिमाचल के बड़े मंदिरों के दर्शनार्थी बढ़ गए, लेकिन दर्शन बड़े नहीं हुए। कारण जितने ज्वालाजी में हैं, उतने ही चिंतपूर्णी, दियोटसिद्ध या किसी अन्य मंदिर परिसर में होंगे। हमने दक्षिण भारतीय मंदिरों का अध्ययन करने के लिए खर्च तो उठाया, लेकिन रिपोर्ट बनाकर भी सीखा कुछ नहीं। ऐेसे में सवाल मंदिर परिसर की अफरा-तफरी तक ही नहीं, बल्कि सडक़ से हर सफर तक देखे जाते हैं। हम पर्यटन की तमाम घोषणाओं और परियोजनाओं में बड़ी मंजिलों का गुणगान सुनते हैं, लेकिन यह अभी नहीं जान पाए कि हिमाचल में करीब अस्सी फीसदी सैलानी या तो मंदिर यात्री के रूप में आए या धार्मिक पर्यटन ने इन्हें डेस्टिनेशन टूरिज्म तक पहुंचा दिया।

न पर्यटन के सेतु देखे गए और न ही यह प्रयास हुआ कि किस तरह धार्मिक स्थलों को आर्थिकी का स्थायी स्तंभ बनाया जाए। कल अगर सरकार को सैलानियों की तादाद में पर्यटन देखना है, तो सर्वप्रथम मंदिर परिसर और धार्मिक शहरों का मास्टर प्लान एवं गवर्निंग बाडीज स्थापित करनी होगी। मंदिर पर्यटन को धार्मिक पर्यटन का आकार देना तभी संभव होगा, यदि इसके लिए एक केंद्रीय मंदिर ट्रस्ट तथा मंदिर विकास प्राधिकरण का गठन किया जाए। मंदिर आय के सही इस्तेमाल को अगर तरजीह व अनुशासित निगाह मिले, तो इससे न केवल वांछित व शहरी विकास, बल्कि आर्थिकी का संचार भी होगा। सवाल परिक्रमा का नहीं, बल्कि परिदृश्य को बदलने का है। मंदिरों की शक्ति में पर्यटन की अहमियत को स्वीकार करें, तो योजनाओं के किरदार बदलेंगे। अब तक मंदिर आय पर सियासी तथा प्रशासनिक दृष्टि केवल दोहन भर की रही है, जबकि इन्हें सर्किट के रूप में विकसित करना होगा। आय-व्यय के कुचक्र में मंदिरों में न तो प्रशासनिक सुधार हुए और न ही क्षमता का विस्तार किया गया। उदाहरण के लिए ज्वालाजी मंदिर को अगर धार्मिक केंद्र के रूप में निखारना हो तो व्यापक शहरी विकास योजना का खाका बनाना पड़ेगा। मंदिर परिसर का क्षेत्रफल आठ से दस किलोमीटर तक सुव्यवस्थित करते हुए पार्किंग, मनोरंजन, व्यापारिक तथा धार्मिक मान्यताओं से जुड़े स्थलों को एक साथ नत्थी किया जा सकता है। ज्वालाजी मंदिर परिसर के साथ नादौन में ध्यानू भक्त की समाधि को जोड़ा जा सकता है, जबकि गरली-परागपुर जैसे धरोहर गांव भी इसकी परिधि में आकर विविध सुविधाओं में इजाफा कर सकते हैं।

ज्वालाजी परिसर के साथ ब्यास नदी में जल क्रीड़ाएं तथा एक कला केंद्र का विस्तार किया जा सकता है। मंदिरों की आय बढ़ाने के लिए अभी तक सिर्फ श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए जा रहे सिक्के गिने जाते रहे हैं, जबकि धार्मिक स्थल की गतिविधियों तथा अधोसंरचना निर्माण को आगे बढ़ाकर ही आर्थिकी बढ़ेगी। बतौर संस्कृति मंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने वीआईपी दर्शन करवा कर ही चिंतपूर्णी मंदिर की आय में दो करोड़ अर्जित करवा दिए, तो ऐसे अनेक समाधानों से हिमाचल करीब आधा दर्जन धर्म स्थलों पर केंद्रित आर्थिकी को पांच करोड़ तक पहुंचा सकता है, बशर्ते शिमला के नीतिकार पर्यटन की आस्था को मंदिरों में समझें। अब तक मंदिरों की आय का सदुपयोग नहीं हुआ है, जबकि इस पर आधारित व्यय से धार्मिक पर्यटन व श्रद्धालुओं की सुविधाओं को बढ़ावा मिलना चाहिए। मंदिर दर्शन को एक व्यापक परिक्रमा के जरिए धार्मिक पर्यटन बनाने की जरूरत है।