अब हेपेटाइटिस का संक्रमण

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट में भारत में हेपेटाइटिस की चुनौतियों और खतरों का उल्लेख है। लिवर से जुड़ी यह बीमारी घातक भी साबित हो सकती है और बाद में कैंसर का रूप भी धारण कर सकती है। हेपेटाइटिस बी और सी को लेकर भारत में जागृति बहुत कम है, क्योंकि इनके लक्षण ही पेचीदा हैं। चूंकि यह भी वायरल संक्रमण की बीमारी है, लिहाजा डॉक्टर भी लक्षणों का अध्ययन करते समय गलत निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। भारत में हेपेटाइटिस बी के करीब 3 करोड़ संक्रमित मरीज हैं, जबकि हेपेटाइटिस सी के 50 लाख से अधिक लोग बीमार हैं। लिवर की सूजन और संक्रमण के साथ इन बीमारियों का बोझ उठाने वाला भारत विश्व में ऐसा दूसरा देश है। वह दिन दूर नहीं, जब विश्व में सर्वाधिक हेपेटाइटिस संक्रमण भारत में होगा। भारत में ही 2022 में हेपेटाइटिस ने एक लाख से अधिक जिंदगियां छीन ली थीं। चिंताजनक पक्ष यह है कि बहुत कम संक्रमित लोगों के लक्षण स्पष्ट हो पाते हैं, लिहाजा वे निदान और इलाज के दायरे में नहीं आ पाते। हेपेटाइटिस सी के 30 फीसदी से कम मामलों की पहचान हो पाती है, लिहाजा लिवर का यह संक्रमण ज्यादा घातक, यहां तक कि जानलेवा, साबित हो सकता है। हेपेटाइटिस बी के आंकड़े मात्र 3 फीसदी ही बताए जाते हैं। नेशनल वायरल हेपेटाइटिस कंट्रोल प्रोग्राम का लक्ष्य 2030 तक भारत को हेपेटाइटिस सी से मुक्त कराना है। हेपेटाइटिस बी से जुड़ी रुग्णता, मृत्यु-संख्या और मृत्यु-दर को भी 2030 तक ही काफी कम करना है। इसे लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार काफी आशान्वित हैं कि यदि 2024 और 2026 के बीच स्थितियों में सुधार लाया जाए, तो हेपेटाइटिस कंट्रोल प्रोग्राम पटरी पर लाया जा सकता है।

नतीजतन लक्ष्य भी कमोबेश हासिल किए जा सकते हैं। कई बीमारियां प्रदूषित रक्त के जरिए फैलती हैं। हेपेटाइटिस की दोनों किस्में भी दूषित रक्त के जरिए विस्तार पाती हैं। हेपेटाइटिस बी लिवर के ऊतकों पर चोट करता है और कैंसर के जोखिम को बढ़ाता है। लक्षण और निदान पेचीदा हैं, लिहाजा वायरस कई सालों तक छिपा रह सकता है। वे दूसरों को प्रभावित करते हैं। लक्षण तब सामने आने लगते हैं, जब रोगाणु ज्यादा आक्रामक रुख अख्तियार कर लेते हैं। हालांकि हेपेटाइटिस की किस्मों का कोई इलाज नहीं है, लेकिन जो इलाज किया जाता है, उससे कुछ हद तक लक्षणों का बंदोबस्त किया जा सकता है। यानी इलाज से बीमारी कुछ सीमा तक काबू में की जा सकती है। हालांकि 2018 में नेशनल वायरल हेपेटाइटिस कंट्रोल प्रोग्राम की शुरुआत की गई थी, जिसके तहत टेस्टिंग और दवाएं नि:शुल्क हैं, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रपट भी है कि प्रोग्राम ज्यादातर मरीजों के पास पहुंचा ही नहीं है। बीते 20 सालों में खून की जांच के प्रोटोकॉल बहुत सख्त किए गए हैं, लिहाजा रक्त के संक्रमण का जोखिम कम हुआ है। भारत में हेपेटाइटिस बी संक्रमण मामलों का अभी तक जो विश्लेषण किए गए हैं, उनमें संक्रमण मां से शिशु की ओर गया है। टीकाकरण से भी इस बीमारी और संक्रमण के विस्तार को रोका जा सकता है। भारत में टीकाकरण भी काफी अनियमित है और शिशु के जन्म लेने के तुरंत बाद जो टीकाकरण किया जाना चाहिए, उसके प्रति अशिक्षित और अज्ञानी जमात गंभीर नहीं है, लिहाजा शिशु की इम्युनिटी प्रभावित होती है।

भारत में 50 फीसदी से कम शिशुओं को सभी आवश्यक टीके समयानुसार दिए जाते हैं। बहरहाल हेपेटाइटिस सी का इलाज अपेक्षाकृत आसान और संभव है। एंटी-वायरल बीमारी का इलाज कर सकते हैं और दीर्घकाल में लिवर को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में हेपेटाइटिस का उपलब्ध इलाज दुनिया में सबसे सस्ता है। करीब 70 फीसदी मरीज निदान और इलाज नेटवर्क से दूर भागते रहते हैं और प्राथमिक चिकित्सा को दोष देते रहते हैं। चूंकि यह चेतावनी विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से आई है, लिहाजा सरकारों के स्तर पर इस संक्रमण को संबोधित किया जाना चाहिए। बेशक हेपेटाइटिस हो अथवा टीबी हो, इन संक्रामक बीमारियों को लेकर जरा-सी भी कोताही नहीं बरतनी चाहिए। कोरोना काल के दौरान जिस तरह सजगता के साथ काम किया गया, उसी पैटर्न पर काम करने की जरूरत है।